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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वों को हृदयङ्गम करती थीं । वैराग्य भावना के कारण परिवार के लोगों द्वारा जैन दीक्षा धारण कर लेने के उपरान्त स्त्री को भी दीक्षा ग्रहण करनी पड़ती थी। पत्नी द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण किए हुए पति का अनुसरण करना पतिभक्ति का प्रदर्श भी माना जाने लगा था । ४७२ मध्यकालीन दार्शनिक विचारधाराएं भी स्त्री चेतना से विशेष प्रभावित हुई थीं । प्रायः इस युग के प्राचार्य दार्शनिक तत्त्वों को विशद करने के लिए घटपट प्रादि उदाहरणों के समान स्त्री- भोग-विलास से सम्बन्धित दृष्टान्तों द्वारा विवेच्य वस्तु को समझाने का प्रयास भी करने लगे थे। जयन्तविजय में पाँच प्रकार के प्रत्यक्ष प्रमाण के जो विभिन्न दृष्टान्त दिए गए हैं उनमें रमणियों का रूप-दर्शन, अधरामृत आस्वाद, लय एवं मूर्च्छना श्रवण, सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्ध तथा विविध अंगों का स्पर्श सुख प्रादि उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं । इसी प्रकार दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी के दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमल मार्तण्ड नामक ग्रन्थ में स्फोटवाद नामक दार्शनिक सिद्धान्त की चर्चा के प्रसंग में नतकी के हाव-भावों तथा कटाक्षों द्वारा प्रर्थग्रहण होने की जिस नवीन मान्यता का उल्लेख किया वह भी प्रालोच्य काल की दार्शनिक मान्यतानों पर पड़ने वाले स्त्री मूल्यों के प्रभाव को ही विशद करता है । ५ श्रार्थिक क्षेत्र में स्त्री मध्यकालीन भारत की सामन्तवादी अर्थव्यवस्था में स्त्री तथा उसके सौन्दर्योपभोग की विभिन्न वस्तुनों का विशेष महत्त्व हो गया था । विभिन्न प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों तथा अनेक प्रकार के प्राभूषणों की स्त्री के सन्दर्भ में विशेष १. ताश्च प्रकृत्यैव कलाविदग्धा जात्यैव धीरा विनयविनीताः । आचारसूत्राङ्गनयप्रभङ्गानाधीयते स्मात्पतमै रहोभिः || - वराङ्ग०, ३१.१, ७ - परि० २१८७ तथा - वही, १२.१३२ २. नवोढा ग्रपि हि त्यक्ता प्रव्रजिष्यामि निर्ममः । भ्राता मम प्रव्रजितो भर्ता प्रव्रजितोऽथ मे । प्रव्रजिष्यति पुत्रोऽपि प्रव्रज्याम्यहमप्यतः ।। ३. प्रव्रज्यामितरद्वापि यद्यज्जम्बूः करिष्यति । तदेव पतिभक्तानामस्माकमपि युज्यते ॥ जयन्त०, १५.१८-२२ — वही, २.१२९ - ३० ४. ५. एतेन हस्तपादकरणमात्रिकाङ्गहारादि स्फोटोप्यापादितो द्रष्टव्यः । - प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३.३.१०१, पृ० ४५७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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