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________________ स्त्रियों को स्थिति तथा विवाह संस्था जैन देवशास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार व्रताचरण के फलों में स्वर्ग प्राप्ति प्रमुख फल था तथा उसमें भी देव-कन्याओं के साथ रमण करने का सुख सार समझा जाता था।' 'स्वदारसंतोषव्रत' की जैन मान्यता को कभी-कभी चुनौती भी दी जाती रही थी तथा भौतिकवादियों द्वारा यह उपदेश भी दिया जाने लगा था कि जो पुरुष इस संसार में ही उपलब्ध सुन्दर स्त्रियों के भोग की उपेक्षा करता है वह स्वयं को वंचित कर रहा है ।२ सामन्तवादी मूल्यों से अनुप्रेरित समाज का एक वर्ग धर्म और दर्शन की परलोक सम्बन्धी मान्यताओं का विरोध भी कर रहा था तथा उपभोगवादी जीवन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न प्रकार के भोगों के साथ 'स्त्री उपभोग'४ को मानव जीवन की सार्थकता के रूप में प्रतिपादित कर रहा था। दार्शनिक क्षेत्र में स्त्री जैन दर्शन की दृष्टि से प्राध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में नारी प्रवेश को पूरी मान्यता प्राप्त थी । वराङ्गचरित महाकाव्य में प्रायिकामों के रूप में नारियां १. यथालकायां सुरसुन्दरीभिः सहैव रेमे भगवान्महेन्द्रः । मदेन विभ्राजितलोचनाभी रेमे चिरं भूमिपतिस्तथैव ॥ -वराङ्ग०, २८.३२ व्रते दिवं यान्ति मनुष्यवर्या दिवश्च सारोऽप्सरसोवराङ्गयः ॥ -वही, १६.६४ २. वही, १६.६०-६४ ३. भोज्यानि भोज्यान्यमृतोपमानि च पेयानि पेयानि यथारुचि प्रभो। -पद्मा०, ३.१३० तन्व्यः सुतन्वाः सुकुमारतागुणः शिरीषपुष्पाणि कठोरयन्ति याः । ताभिः सुखं खेलतु निर्मयं विभुमंरालरोमावलितूलिकाङ्गकः ।। समागमोत्कण्ठितकामिनीघटा चटूक्तिभिः कर्णरसायनं तव ।। - वही, ३.१२६, ३३ तथा मस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचना । यत्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपाल भवादृशाः ।। -पद्मानन्द महाकाव्य, भूमिका, पृ० २१ पर उद्धृत
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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