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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
आदि से युक्त न होकर पुरुषों की काम-लोलुपता को शान्त करने की दृष्टि से था।' भोग्या के रूप में नारी की प्रतिष्ठा प्राप्त होने का मुख्य कारण सामन्तवादी भोगविलास ही था। मध्यकालीन साहित्य चेतना में स्त्री-सौन्दर्य को जितना उभारा गया है उससे भी नारी की स्थिति में पर्याप्त अन्तर पाया तथा नारी को तत्कालीन समाज की एक ऐश्वर्यपूर्ण आवश्यकता के रूप में महत्त्व दिया जाने लगा था।' मध्यकालीन ऐश्वर्य भोग के संसाधनों के साथ नारी इतनी घुलमिल गई थी, जिसके कारण एक अोर सामन्ती जन-जीवन को सार्थकता प्रदान करने की दृष्टि से वह संजीवनी शक्ति का काम कर रही थी तो दूसरी ओर समाज के व्यापक सन्दों में भी एक भोग्या के रूप में उसका प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था । पालोच्य महाकाव्यों के अश्लील एवं बीभत्स श्रेङ्गारिक वर्णन समाज के उच्चवर्गीय सामन्तादि राजामों की सौन्दर्य भोग की लालसानों को उत्तेजित एवं उद्दीप्त करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। मध्यकालीन कवियों ने भी युगीन आवश्यकता के अनुरूप दो प्रमुख चेतनाओं को अपने काव्यों में प्रमुख स्थान दिया इनमें से एक युद्ध-पेतना थी तो दूसरी नारी-चेतना ।४ कभी-कभी इन दोनों चेतनामों को उपमेय-उपमान भाव से प्रस्तुत करते हुए युद्ध तथा नारी को पालोच्य युग के एक मुख्य कथ्य रूप में भी स्वीकार किया गया है।५ मध्यकालीन भारत के राजनैतिक
१. तासां वधूनां रमणप्रियाणां क्रीडानुषङ्गक्रमकोविदानाम् । पालापसंल्लापविलास भावैः कालो व्यतीतो धरणीन्द्रसूनोः ।।
___-वराङ्ग०, २.६१ २. आश्रमः सर्वशास्त्राणामाकरः सर्वसम्पदाम् ।
अन्योन्यसमयुग्माङ्गव्यञ्जनानामुपाश्रयः ॥ आभिरूप्यस्य नियतिः सीमा सौभाग्यसम्पदः । लावण्यस्य पयोराशिः कलानां नित्यचन्द्रिका ।। आदिप्रजापतिः स्याच्चेन्नूनं सेनान्त्यवेधसाम् । स्त्रियः स्रष्टुं प्रतिच्छन्दं कृता ग्राम्या वधूरियम् ।। -द्विस०, ७.७०-७२, ७३ ३. धर्म०, सर्ग १५; चन्द्र०, सर्ग १०; नेमि०, सर्ग १०; हम्मीर०, सर्ग १५ ४. सपदि चक्रकृपाणशरावलीप्रभृति शस्त्रचयं किमसज्जयन् ।।
-हम्मीर०, ७.३०-३१ ५. चकायमाणमणिकर्णपूरैः पाशप्रकाशरतिहारहारः । भ्रूभिश्च चापाकृतिभिवरेजुः कामास्त्रशाला इव यत्र बालाः ।।
-नेमि०, १.३६