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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
पुत्री के माता-पिता उसे लोकापवाद के भय से अपने घर पर सुखना अनुचित समझते थे तथा पतिगृह में दासी बनकर रहने के लिए भी बाध्य करते थे।' कालिदास की तरह नाटककार भवभूति ने भी नारी सम्बन्धी विसंगल परिस्थितियों को उत्तररामचरित में विशेष रूप से उभारने का प्रयास करते हुए संकेत दिया है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियों के चरित्र के प्रति लोग कितना सन्देहालु दृष्टिकोण अपनाए हुए थे।
इस सम्बन्ध में कुछ ऐसे नारी समर्थक विचारकों की मान्यताओं की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती जिन्होंने स्त्रियों के विषय में प्रचलित अनर्गल एवं भ्रान्त धारणामों को कटु आलोचना की है। ऐसे विचारकों में छठी शताब्दी में हुए बृहत्संहिताकार वराहमिहिर का नाम विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। वराहमिहिर का कथन है कि जो दोष स्त्रियों के बताए जाते हैं वे पुरुषों में भी विद्यमान हैं।' अन्तर इतना ही है कि स्त्रियां उनसे बचने का प्रयत्न करती हैं जबकि पुरुष उनके प्रति बेहद लापरवाह रहते हैं।४ कामवासना से कौन अधिक पीड़ित होता है पुरुष या स्त्री ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि 'पुरुष वृद्धावस्था में भी विवाह करते हैं परन्तु स्त्रियां वाल्यावस्था में भी विधवा हो जाने पर सदाचार का जीवन बिताती हैं ।"५
___ वस्तुतः भारतीय परिवेश में पुरुष को नारी से उत्कृष्ट मानने की दार्शनिक मनोवृत्तियों एवं पितृमूलक कुलतन्त्र की समाजशास्त्रीय प्रवृत्तियों ने प्रत्येक युग में एक दूसरे से मिलजुल कर नारी दासता की विभीषिकानों को जन्म दिया है । परन्तु पाश्चर्य जनक यह है कि विशुद्ध सामाजिक धरातल पर नारी समर्थक
१. अभि०, ५.२७ २. यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।।
-उतररामचरित, १.५ ३. प्रबूत सत्यं कतरोऽङ्गनानां दोषोऽस्ति यो नाचरितो मनुष्यः । धाष्ट्येन पुम्भिः प्रमदा निरस्ता गुणाधिकारस्ता मनुनात्र चोक्तम् ॥
-बृहत्संहिता, ७४.६ ४. दम्पत्योयुत्क्रमे दोषः समः शास्त्रे प्रतिष्ठितः ।।
नरा न समवेक्षन्ते तेनात्र वरमङ्गना ।।-वही, ७४.१२ ५. वही, ७४.१६ तथा तु०-पी० वी० काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास,
भाग १, पृ० ३२७
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