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________________ स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था ४६५ मनु की प्राचार संहिता के अनुसार शैशवकाल में पिता के, युवावस्था में पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के प्राधीन रहना ही नारी की नियति बन गई तथा स्वतन्त्र होकर न रहने के प्रति उसे सचेत कर दिया गया।' उत्तरवर्ती स्मृति युगीन विशेषकर गुप्तकालीन नारी की दशा को यदि कालिदास साहित्य के आलोक में मूल्याङ्कित किया जाए तो हम देखते हैं कि महाकवि कालिदास ने परतन्त्र नारी की वास्तविक दशा के प्रति अपनी हार्दिक संवेदनाएं प्रकट की हैं तथा उसकी इस दशा के लिए उत्तरदायी तत्कालीन समाज व्यवस्था की विसंगतियों को उभारा है। अभिज्ञानशाकुन्तल में दुष्यन्त द्वारा परित्यक्ता शकुन्तला का चित्रण स्मृतिकालीन नारी मूल्यों से पनपी उस तत्कालीन असहाय तथा निर्दोष स्त्री का ही प्रतिरूप है जो सामाजिक अन्धरूढियों के परिणामस्वरूा न तो पतिगृह में स्वीकार की जाती है और न ही माता-पिता का पक्ष ही उसे आश्रय दे पाता है। उसके पास केवल एक हो मार्ग बचा है पतिकुल में दासी बन कर रहे । २ इस अवसर पर कालिदास ने उत्पीडित शकुन्तला के मुख से दुष्यन्त के प्रति जो कठोर शब्दों को कहलवाया है उसमें नारी पीड़ा की युगीन संवेदनाएं मुखरित हुई हैं तथा पुरुष जाति के विरुद्ध अविश्वास एवं अनास्था के भाव अभिव्यक्त हुए हैं। 3 कालिदास ने इस यथार्थ को भी विशेष रूप से उभारा है कि पुरुष की स्वेच्छा से चाहे नारी को गहलक्ष्मी के पद पर भी आसीन किया जाता होगा अथवा प्रेम के स्वार्थवश उसे सचिव, मित्र आदि का सम्मान भी दिया जाता होगा परन्तु व्यवहार में यह सब कुछ पुरुष को अनुकम्पा पर ही निर्भर करता था न कि स्त्री की स्वेच्छा पर । एक प्राश्चर्यपूर्ण विडम्बना यह भी रही थी कि पत्नी पर चरित्रहीनता का मिथ्या आरोप लगा दिए जाने पर १. पिता रक्षति कौमारे भर्ता रमति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ -मनु०, ६.३ २. पतिकुले तव दास्यमपि क्षमम् । -अभि०, ५.२७ उपपन्ना हि दारेषु प्रभुता सर्वतोमुखी ।-वही, ५.२७ तथा तु० -दासीवदिष्टकार्येषु भार्या भर्तुः सदा भवेत् ।-व्यासस्मृति, २.२७ ३. अनार्य ! प्रात्मनो हृदयानुमानेन प्रेक्षसे । क इदानीमन्यो धर्मकञ्चुकप्रवेशिन स्तृणच्छन्नकूपीपमस्य तवानुकृति प्रतिपत्स्यते । -अभि०, अङ्क ५ ४. . अभि०, ४.१६; रघुवंश, ८.६७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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