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अष्टम अध्याय स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था
(क) स्त्रियों की स्थिति वैदिक समाजव्यवस्था पितृसत्तात्मक कुलतन्त्र से अनुप्राणित रहने के कारण पुरुष को नारी की अपेक्षा विशेष महत्त्व देती है। प्राग्वैदिक काल में मातसत्तात्मक परिवार तन्त्र की भी स्थिति रही थी जिसमें नारी कुटुम्ब की मुखिया थी और पुरुष की भूमिका गौण होती थी। इस मातमूलक समाज व्यवस्था के प्रागैतिहासिक अवशेष सांख्य दर्शन में सुरक्षित हैं जिसमें सृष्टि के प्रधान कारण के रूप में 'प्रकृति' को मुख्यता प्रदान की गई है और 'पुरुष' को उदासीन कहा गया है । सिन्धु सभ्यता के पुरातात्त्विक अवशेषों में मातृदेवियों की स्थिति भी यही बताती है कि तत्कालीन समाज में नारी शक्ति की देवत्व के रूप में पूजा की जाती थी ४ वैदिक कालीन नारी
वैदिक कालीन नारी का स्थान अनेक दृष्टियों से सम्माननीय बना हुमा था । पुरुष के समान धर्म तथा शिक्षा के क्षेत्र में उसे पूरे अधिकार दिए गए थे। परिणामत: हम देखते हैं कि वैदिक काल में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषा मादि अनेक ऐसी विदुषी महिलाएं हुई जो मन्त्रों की रचना करती थीं और तत्त्वज्ञान
१. Chatterji, S. K. Atreya, B. L.; Danielov, A; Indian Culture,
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Mohan Chand, Yogasutra with Maniprabha, Delhi, 1987, Introduction, p.x Altekar, A.S., The Position of Women in Hindu Civilization, Delhi, 1965. p. 339; Arora, Rajkumar, Historical And Cultural Data From the Bhavisya Purana, Delhi, 1972, p. 111.