________________
शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
४५७
कवि परम्परा से प्राकृत भाषा के पोषक तथा संवर्धक रहे थे किन्तु राष्ट्रीय पटल पर संस्कृत की गूंज के कारण सातवीं शताब्दी के बाद इन्होंने भी अपने साहित्यिक, दार्शनिक तथा धार्मिक ग्रन्थों को संस्कृत भाषा में भी लिखना प्रारम्भ कर दिया था। जैन कवि भी कालिदास, भारवि आदि के ग्रन्थों का अध्ययन करते थे। नेमिचन्द्र शास्त्री महोदय ने 'संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान' नामक अपने शोध ग्रन्थ द्वारा यह तथ्य भलीभांति सिद्ध कर दिया है कि परवर्ती जैन साहित्य किस तरह से ब्राह्मण संस्कृति के साहित्य से अनुप्रेरित, एवं प्रभावित होकर निर्मित हुप्रा है । अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण शिक्षा एवं साहित्य जगत् में भाषा के माध्यम के रूप में संस्कृत राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए हुए थी। इस काल में पाभिजात्य ब्राह्मण वर्ग से ही संस्कृत भाषा सम्बन्धित न थी अपितु जैन, बौद्ध विचार धाराओं को भी इसने पूरा-पूरा प्रभावित किया था। परिणामतः मध्यकालीन अध्ययन की विभिन्न शाखामों तथा ज्ञान परम्पराओं का पल्लवन संस्कृत भाषा के माध्यम से ही हो पाया था।
___लोकोपयोगी शिक्षा के सन्दर्भ में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ज्योतिषविद्या, आयुर्वेद, शकुनशास्त्र, स्वप्नशास्त्र समाज में अपनी लोकप्रियता अजित कर चुके थे। लोकव्यवहार की दृष्टि से उपयोगी समझी जाने वाली इन विद्यानों के प्रशिक्षण में छात्र विशेष रुचि लेते थे । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि गुणवत्ता एवं राष्ट्रीय एकता दोनों दृष्टियों से मध्यकालीन शिक्षा संचेतना एक संतुलित एवं विकासोन्मुखी शिक्षा व्यवस्था का नियोजन कर रही थी और साथ ही भारतीय संस्कृति की विविध ज्ञान धारामों के संवर्धन एवं संरक्षण के प्रति भी प्रयत्नशील थी।