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________________ ४५६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज भी अछूते नहीं थे। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्गों से सम्बद्ध दो प्रमुख शिक्षा चेतनाएं इस युग में अपनी सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप पूर्णतः विकसित हो चुकी थीं। सामान्यतया परम्परागत वैदिक शिक्षा पद्धति ही देश में सर्वोपरि रही थी। किन्तु क्षत्रिय वर्ग के राजपरिवारों में राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उच्चस्तरीय शैक्षिक अध्ययन की विशेष सुविधाएं भी उपलब्ध थीं। मध्यकालीन भारतवर्ष की शैक्षिक गति-विधियों पर तत्कालीन युद्धों का वातावरण एवं सामरिक चेतना भी विशेष रूप से हावी थी। परिणामतः शिक्षा संस्था पर पड़ने वाली सामरिक चेतना के परिणामस्वरूप जनसाधारण की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। युद्ध सम्बन्धी विशिष्ट विद्याएं विशेष लोकप्रिय होती जा रही थीं। राजकुमारों की शिक्षा के सन्दर्भ में युद्धकला, शस्त्र प्रस्त्र संचालन, व्यूहभेदन, अश्वशास्त्र तथा गजशास्त्र आदि विद्यानों के अध्यापन पर विशेष बल दिया जाने लगा था। शिक्षा का व्यवसायीकरण होना तथा तत्कालीन जीविकोपार्जन की समस्या के अनुरूप अध्ययन विषयों की छात्रों को शिक्षा देना भी शिक्षा संस्था की एक विशेषता रही थी। मध्यकालीन भारतवर्ष के अधिकांश शिक्षा-पाठ्य-क्रम समाज से कटे हुए न होकर तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप थे । इसी प्रयोजन से पौरोहित्य व्यवसाय. सैन्य व्यवसाय, शिल्प व्यवसाय तत्कालीन विद्यानों तथा कलाओं से पूर्णतः सम्बद्ध थे। विद्याओं का व्यवसायों के साथ सम्बद्ध रहने के कारण जहां एक ओर अध्ययनार्थी के भरण-पोषण की दृष्टि से विद्या सार्थक हो सकी थी वहाँ दूसरी ओर विविध प्रकार के व्यवसायों के विशिष्टीकरण की प्रक्रिया भी प्रगतिशील मूल्यों से अनुप्रेरित होती जा रही थी। इसी वैशिष्टघ के कारण भारत की मध्यकालीन विभिन्न कलाकृतियों तथा भवन सन्निवेशों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवशेष भी आज अपने कला-सौन्दर्य के विशेष प्रकार के नमूने के तौर पर विश्व-विख्यात हैं । वास्तव में विभिन्न विद्यानों तथा कलाओं के स्वतन्त्र विकास का ही यह परिणाम है। जैन संस्कृत महाकाव्यों के स्रोतों के आधार पर निरूपित शैक्षिक गतिविधियों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता संस्कृत भाषा भी रही थी। यह ठीक है कि दक्षिण भारत के कुछ प्रदेशों में लोकभाषाएं भी शिक्षा के माध्यम के रूप में उभर कर पा रहीं थीं किन्तु सम्पूर्ण शिक्षा जगत् में संस्कृत का वही स्थान था जो कि वर्तमान भारत में अंग्रेजी का रहा है । ज्ञान की विविध शाखाओं के मौलिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही लिखे जाते थे तथा अध्ययन-अध्यापन की राष्ट्रीय भाषा भी संस्कृत ही रही थी । शैक्षिक चर्चा-परिचर्चा, दार्शनिक खण्डन-मण्डन तथा वैचारिक वाद-प्रतिवाद का राष्ट्रीय स्वर संस्कृत भाषा से ही मुखरित था । यद्यपि स्वयं जैन
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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