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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
था । श्रोषधि ग्रहण न करने के प्रमाद तथा कोढ़ से व्याप्त कीटाणुओंों की हत्या हो जाने के भय से जैन मुनि का इस रोग के उपचार के प्रति उपेक्षाभाव रहा था । जीवानन्द तथा उसके पांच मित्र वैद्यों ने मुनि के इस कुष्ठ रोग की चिकित्सा करने का विचार किया। इन छह वैद्यों में जीवानन्द मुख्य वैद्य था । 3 तत्कालीन शल्यचिकित्सा सम्बन्धी पद्धतियों का इस अवसर पर प्रयोग किया गया । उपचारार्थं मुख्य सामग्रियाँ थीं - १. लक्षपाक तेल ४ २. मृत गाय का शव ३. मणिकम्बल ६ तथा ४. गोशीषं - चन्दन ७ ।
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शल्यचिकित्सा विधि
सर्वप्रथम जैन मुनि के सभी गात्रों की तेल से मालिश की गई। 5 तदनन्तर कुष्ठ रोग विनाशक उष्ण तेल को मला गया । निरन्तर तेल की मालिश करने के कारण उष्ण हुए शरीर में से सभी कुष्ठ रोग के कोड़े बाहर निकलने लगे । १० अत्यधिक उष्णता को न सह सकने के कारण मुनि भी मूच्छितावस्था को प्राप्त हो गए । ११ ताप - शमनार्थं मुनि के शरीर को शीतल मरिण कम्बल से लपेट दिया गया । १२ तेल की उष्मा से मणिकम्बल में कीड़े निकलते रहे तथा धीरे धीरे
१. चारित्रपावित्र्यकृते काले, कुपथ्य-भोज्यात् कृमिकुष्ठरोगी । २. सोऽभूत् तथाऽप्यौषधमग्रहीन्न, देहानपेक्षा हि मुमुक्षवः स्युः ।
३. वही, ६.५३-६६
४. गृहेऽस्ति तैलं मम लक्षपाकम् । - वही, ६.५३
५. तत्रानयन् गोमृतकं नवं ते । - वही, ६.७१
— पद्मा०, ६.३७
६. गोशीर्षकं चन्दनमानयध्वं मित्राणि ! यूयं मणिकम्बलं च ।
७. वही, ६.५४
८.
स्नेहेन सर्वाङ्गमथाभ्यषिञ्चन् । - वही, ६.७४ ६. प्रत्यङ्गमभ्यङ्गनिषङ्गरोग-घाताय तैलं व्यलसत् तदन्तः ।
— वही, ६.५४
- वही, ६.७५
१०. तैलेन तेनाकुलिता यतीन्दोर्बहिः शरीरात् कृमयो निरीयुः ।
- वही, ६.७७
११. प्रत्युष्णवीर्येण वपुर्गतेन, तैलेन जज्ञे स मुनिबिसञ्ज्ञः ।
— वही, ६.७६
१२. पुनर्मुनीन्दुं मणिकम्बलेन, वैद्यावतंसः परितोऽप्यधात तम् । यथान्तरीक्षं तपतापतप्तं तपात्पयस्तोयदमण्डलेन ॥
वही, ६.८५