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________________ शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान ........ ४४७ द्रष्टाघात द्वारा विष व्याप्त अङ्ग का संभवतः उपचार दुःसाध्य माना जाता था। हम्मीर महाकाव्य में अनेक वैद्यों तथा मंत्रवादियों को इस रोग की चिकित्सा में असफल रहने का उल्लेख पाया है । गर्भपात-निरोध तथा विष-परिहार आदि रोगों के उपचार भी संभव थे।२ अजीर्ण, 3 पित्त, वात, कफ, श्लिष्म, सन्निपात जलोदर,५ क्षाम, विपाण्डु, गंडलेखा, आदि अन्य रोगों का भी प्रसङ्गत: उल्लेख आया है। इनके अतिरिक्त, औषधिचूर्ण रसायन काष्ठ, वनौषधि आदि विशेष प्रकार की औषधियाँ रोग चिकित्सा के लिए प्रयोग में लाई जाती थीं। जैन संस्कृत महाकाव्यों से कुछ रोगों के लक्षण अथवा उपचार संबंधी महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर विशेष प्रकाश पड़ता है । इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैपाहतोपचार __ घायल व्यक्ति के रक्त स्रावित स्थान को हाथ से दबाना, ठण्डे पानी के छींटे देना, मस्तक पर चन्दन का लेप लगाना, पंखे से हवा करना आदि प्राथमिक उपचार सम्बन्धी नियम प्रचलित थे।१० इन उपायों द्वारा पाहत व्यक्ति चेतना प्राप्त कर सकता था। गहरी चोटों का उपचार करते हुए वैद्य सर्वप्रथम घाव को पानी से धोते थे तदनन्तर उन घावों में औषधियों को भर दिया जाता था।११ कष्ठरोग को शल्यचिकित्सा पद्मानन्द महाकाव्य में एक जैन मुनि के कुष्ठरोग उपचार का महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होता है ।।२ मुनि के द्वारा कुपथ्यसेवन से यह रोग उत्पन्न हुआ ا १. मन्त्रवादिगणैर्वैद्यवृन्दैरपि परः शतैः । मृशं चिकित्स्यमानोऽपि नाभूद् भूपः स्वरूपभाक् ॥ -हम्मीर०, ४.७१ २. द्विस०, ३.६ ३. शान्ति०, १४.१६ ४. द्वया०, १७.८६ ५. परि०, ७.३० ६. चन्द्र०, ६.६२ ७. धर्म०, ११.२४ ८. पद्मा०, ६.४२ ___६. धर्म०, १२.४६ १०. वराङ्ग०, १४.५४ ११. तं स्नापयित्वा व्रणशोणिताक्त क्षिप्तौषधानि व्रणरोपणानि । -वही, १४.६० १२. पद्मा०, ६.२५-६३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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