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शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
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उन कम्बल में पड़े कीड़ों को एकत्र करके गाय के शव में डालने की प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रही। इस प्रकार चिकित्सकों की यह पूरी चेष्टा रही कि कुष्ठरोग की चिकित्सा करते हुए रोग के कीटाणुओं की मृत्यु न हो तथा वे गोशव में स्थानान्तरित होकर जीवित बचे रहें । ताप के अधिक बढ़ जाने पर बीच बीच में गोशीर्ष चन्दन का लेप भी किया जाता रहा । परन्तु एक बार में ही सभी कीड़ों का शरीर से बाहर निकल पाना असम्भव था क्योंकि तेल की उष्णता जैसे ही कम होती थी कीड़े फिर शरीर के भीतर चले जाते थे ।।3 इसलिए मांस-गत तथा अस्थि-गत कुष्ठ कृमियों को उष्णता के प्रभाव से पूर्णतः बाहर निकालने के लिए उपर्युक्त प्रक्रिया को तीन बार दोहराया गया। तीसरी बार तक शरीर के समस्त कीड़े बाहर निकाल कर गोशव में पुनविस्थापित कर दिए गए थे।४ मरिणकम्बल तथा गोशीर्ष-चन्दन द्वारा समय-समय पर उष्णता वृद्धि पर भी नियन्त्रण किया जाता रहा था ।५ अन्त में कुष्ठ रोग के कारणभूत सभी कीड़ों के बाहर प्रा जाने पर गोशीर्ष चन्दन के लेप से मुनि को पुनः चेतनावस्था में लाया गया। इस प्रकार जैन मुनि के कुष्ठ रोग का निवारण बिना जीव हत्या के हुई शल्य चिकित्सा द्वारा संभव हो पाया। (ग) अन्य रोगोपचार
जलोदर रोग का लक्षण प्राकृति का कुरूप हो जाना माना गया है।
१. स मन्दमान्दोलयति स्म वैद्यस्तत्कम्बलं गोमतकोपरिष्टात् ।
-पद्मा०, ६.८० २. ऋषिं स गोशीर्षरसर्मयूरेवेरिवौषधं ग्रीष्म द्रुतं सिषेच ।
-वही, ६.६८ ३. अथापि तैलेन विनिर्गतास्त्वग् गता यदेते कृमयः पुनस्तत् ।
-वही, ६.८३ ४. बहिर्बभूवुः कृमयोऽथ तस्मादभ्यङ्गतो मांसगता अपि द्राक् ।
-वही, ६.८६ तथा-भूयो निरीयुः कृमयस्तृतीयाभ्यङ्गान्मुनेरस्थिगता अपि द्राक् ।
-वही, ६८६ ५. वही, ६.७६, ८२, ८६, ८८ ६. तेनैष गोशीर्षविलेपनेन, लोपं प्रयाते सकलेऽपि तापे । मुनिः परां निर्वतिमाजगाम स नाम गन्ता प्रशमेन यद्वत् ॥
-वही, ६.६३ ७. किंकुर्मः कोऽपि वृणुते न जलोदरिणीमिमाम् । –परि०, ७.३०