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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
राजविद्या के अन्तर्गत प्रान्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति का अध्ययन कराया जाता था।' द्विसन्धान की टीका के अनुसार आन्वीक्षिकी आत्मविज्ञान को कहते हैं,२ इसका शिष्ट-जन उपदेश करते थे।३ त्रयी के अन्तर्गत धर्माधर्म-विवेक आता है,४ इसकी शिक्षा मुनियों द्वारा दी जाती थी।५ वार्ता के अन्तर्गत लाभ-हानि आदि की चर्चा होती है, इस विद्या की शिक्षा अमात्य आदि उच्चाधिकारी देते थे। दण्डनीति का न्याय-अन्याय से सम्बन्ध होता था, इस विद्या की शिक्षा देने वाले न्यायाधीश अथवा शासकादि होते थे। द्वयाश्रय काव्य में राजनीति शास्त्र से सम्बद्ध त्रिविद्या का उल्लेख हया है। इसके अन्तर्गत वार्ता, त्रयी तथा दण्डनीति का ही विधान किया गया है ।१० वास्तव में द्वयाश्रय काव्य द्वारा प्रतिपादित तीन विद्याओं का ही राजनीति शास्त्र से विशेष सम्बन्ध है। प्रान्वीक्षिकी अर्थात् प्रात्म विज्ञान को अध्यात्मिक विद्या जानकर परवर्ती प्राचार्यों ने राजनीति शास्त्र में इस विद्या को स्थान नहीं दिया होगा। हेमचन्द्र ने अर्थशास्त्र की विषयवस्तु की विवेचना करते हुए इस विद्या के अन्तर्गत षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, वैधीभाव, संश्रय) तथा तीन शक्तियों (प्रभु, मन्त्र, उत्साह) को स्वीकार किया है।'' उशनस् नीतिशास्त्र की भी शिक्षा दी जाती थी। कुमारपाल को उशनस् नीतिशास्त्र का ज्ञान था।१२
१. द्विस०, २.८ पर, पदकौमुदी टीका, पृ० २६ २. आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानम् । -द्विस०, ३,२५ पर पदकौमुदी टीका में उद्धृत
कामन्दक नीतिशास्त्र, २.७ ३. प्रान्वीक्षिकी शिष्टजनात् । -द्विस०, ३.२५ ४. धर्माधर्मों त्रयीस्थितौ । -द्विस०, ३.२५ पर उद्धृत का० नी० २.७ ५. यतिभ्यस्त्रयीम् । -द्विस०, ३.२५ ६. अर्थानौँ तु वार्तायाम् । --द्विस०, ३.२५ पर उद्धृत का० नी० २.७ ७. वार्तामधिकारकृद्भ्यः । . -द्विस०, ३.२५ ८. दण्डनीत्यां नयानयो। -द्विस०, ३ २५ पर उद्धृत का० नी० २.७ ६. वक्तुः प्रयोक्तुश्च स दण्डनीतिः। -द्विस०, ३.२५ १०. Narang, Dvayasraya, p. 208 ११. षाड्गुण्योपायशक्त्यादिप्रयोगोमिभिराकुलम् । अगाहिष्ट स दुर्गाहमर्थशास्त्रमहोदधिम् ।।
-त्रिषष्टि०, २.३.२६ १२. द्वया०, १६.३