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________________ ४३२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज प्राकृत का स्थान गौण था यद्यपि प्राचीन प्राकृत आदि ग्रन्थों को समझाने के लिए इस का महत्व अवश्य था। संस्कृत भाषा द्विजवर्ग से ही पूर्णरूपेण सम्बन्धित थी। राजकुमारों तथा अन्य धनिक वर्गों के बालक संस्कृत भाषा का शिक्षा के माध्यम के रूप में अध्ययन करते थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत होने के कारण तथा संस्कृत उच्च वर्ग की भाषा होने के कारण तत्कालीन समाज में शिक्षा के सर्वाङ्गीण विकास में पर्याप्त बाधाएं भी उत्पन्न हुई।' फलतः राजप्रासादों, धनिक वर्गों तथा आभिजात्य वर्गों तक ही शिक्षा का क्षेत्र सीमित हो चुका था। जनसाधारण की भाषा में शिक्षा के प्रसार के प्रति यद्यपि समाज के कतिपय वर्ग प्रयत्नशील तो थे किन्तु देश का शिक्षा जगत् उनके साथ नहीं था। इस सम्बन्ध में अल्तेकर महोदय की धारणा रही है कि "क्योंकि शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी जो इस काल (पुराणों तथा निबन्धों का युग-५०० ई० से १२०० ई० तक) में जनभाषा न रह गई थी। जनसाधारण में विद्या के प्रचार के लिए प्राकृत भाषाओं के 'वकास की दिशा में कोई सङ्गठित प्रयास न हमा। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वशिष्टता' की हद कर दी गई थी। उदाहरणार्थ इस काल के न्याय, गणित और अलङ्कार शास्त्रों के पण्डितों को एक दूसरे की समस्याओं और अनुसन्धानों का कुछ भी ज्ञान न था। इस काल की शिक्षाप्रणाली का मुख्य ध्येय था प्राचीन संस्कृति और साहित्य की रक्षा ।"२ ५. दर्शन-जैन संस्कृत महाकाव्यों में चार्वाक, 3: तत्त्वोपल्लववाद,४ बौद्धदर्शन, सांख्यदर्शन, ६ मीमांसादर्शन", न्यायदर्शन तथा जैन-दर्शन के प्रमुख तत्त्वों की समीक्षा की गई है ।१० इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन १. अल्तेकर प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, पृ० १८१ २. वही, पृ० १८१ ३. धर्म०, ४.६२ ६५; पद्मा०, ३.१२४-३१; चन्द्र०, २.७१; द्वया०, १५.१२०. ४. चन्द्र०, २.४४-४८ ५. वही, २८६ ६. पद्मा०, ३.१६२-६५, चन्द्र०, २.७४-८३ ७. चन्द्र०, २.६१-६६; जयन्त०, १५.१८-२२; द्वया०, १५.१२४ ८. द्वया०, १३,४६; त्रिषष्टि०, २.३.२२ ६. वराङ्ग०, सगं २६; चन्द्र०, सर्ग १८; धर्म०, सर्ग १६ तथा २१; पद्मा०, सर्ग २, तथा १४; शान्ति०, सर्ग ३ १०. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ३८१-४०३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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