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शिक्षा, कला एव ज्ञान-विज्ञान
४१६ का स्पष्ट उल्लेख पाया है । ' इपी प्रकार काव्यशास्त्र की शिक्षा देने के उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से काव्य लिखने का भी अभ्यास कराया जाता था।
उपर्युक्त जैन महाकाव्योक्त शिक्षण विधियों की तुलना जिनसेनकृत आदिपुराण से भी की जा सकती है। आदिपुराण में (१) पाठ विधि (२) प्रश्नोत्तर विधि (३) शास्त्रार्थ विधि (४) उपक्रम विधि (५) पञ्चांग विधि अर्थात् वाचना, संशय निवारण, पुनरावृत्ति, मनन-चिन्तन तथा धारणा एवं (६) उपदेशविधि आदि शिक्षण विधियों का विशेष उल्लेख मिलता है। अल्तेकर द्वारा प्रतिपादित महत्त्वपूर्ण शिक्षण विधियों की भी जैन महाकाव्यों में प्रतिपादित उपर्युक्त शिक्षण विधियों से तुलना की जा सकती है।
३. शिक्षा केन्द्र शिक्षा के उच्च केन्द्रों के सम्बन्ध में जैन संस्कृत महाकाव्यों में यद्यपि विशेष सूचना प्राप्त नहीं होती है तथापि पाश्रम तथा तपोवन आलोच्य काल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र रहे थे।५ इन्हें 'विद्यामठ' की संज्ञा प्राप्त थी। राजप्रासादों में भी राजकुमारों को शिक्षा देने की व्यवस्था रही थी। समृद्ध नगरों में भी प्रत्येक विषय के अधिकारी गुरु होते थे। द्विसन्धान महाकाव्य के उल्लेखानुसार विद्यार्थी अपने ही नगर के शिक्षकों से ज्ञानार्जन करते थे। इन्हें किसी दूसरे नगर में अध्यनार्थ जाने की कोई प्राबश्यकता प्रतीत नहीं होती थी। इससे अनुमान किया जा सकता है कि तपोवनों के अतिरिक्त नगर भी अब शिक्षा के केन्द्र बनते जा रहे थे।
१. पदप्रयोगे निपुणं विनामे सन्धौ विसर्गे च कृतावधानम् ।
-द्विस०, ३.३६ तथा तु०-प्रदर्शयत् पादगति फलकासिधरश्च सः ।।
__-त्रिषष्टि०, २.३.५१ २. साहित्यशास्त्रसर्वस्वमुपाध्यायाद् यत्नतः । साहित्यवल्लीकुसुमैः काव्यः कर्णरसायनैः ।
-त्रिषष्टि०, २३.२५-२६ ३. आदि०, २.१०२, १०४; २१.६६ ४. अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, पृ० १२०-२५ ५. द्वया०, १५.३७, परि०, १२.१८२-६७ ६. द्वया० १.७ ७. द्विस०, ३.२५ ८. द्विस०, १.३५, तथा तु०-प्रन्यदीयान् जिघ्रतेऽन्यवस्तुनः ।
-वही, १.३५