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________________ ४१८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ४. कण्ठस्थ विधि प्राचीन भारतीय शिक्षण संस्थाओं में ज्ञानार्जन के लिए कण्ठस्थ विधि एक महत्वपूर्ण विधि रही थी । विद्यार्थियों को प्रायः पारणनीय व्याकरण, मनुस्मृति, अमरकोश कण्ठस्थ करा दिए जाते थे । १ सातवीं शताब्दी में फाह्यान के भारत भ्रमण के समय उत्तरी भारत में कण्ठस्थ विधि द्वारा ही प्राय: अध्ययन-अध्यापन होता था । बौद्ध परम्परा में भी कण्ठस्थ विधि का प्रचलन रहा था । इस प्रकार श्रालोच्य काल तक कण्ठस्थ विद्या का महत्त्व कम नहीं हुआ था । जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी कण्ठस्थ करके विद्यार्जन करने का उल्लेख आया है । 3 गुरु द्वारा पढ़ते हुए अध्यायों का शिष्य पहले श्रवरण करते थे; तदनन्तर उन्हें निरन्तर अभ्यासों द्वारा कण्ठस्थ कर लिया जाता था । ४ ५. सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक विधि अत्याधुनिक शिक्षा पद्धति में प्रचलित 'सिद्धान्त' तथा 'प्रायोगिकता' के प्रचलन की सूचना जैन महाकाव्यों से प्राप्त होती है । प्राचार्य सैद्धान्तिक रूप से सर्वप्रथम विद्यार्थी को प्रतिपाद्य विषय के सिद्धान्तों तथा मौलिक तत्त्वों की शिक्षा देते थे तदनन्तर उन्हें व्यावहारिक दृष्टि से भी अभ्यस्त कराया जाता था । युद्धविद्या के विविध सन्दर्भों में इस विधि का स्पष्ट रूप से वर्णन प्राप्त होता है । युद्ध सम्बन्धित स्त्र-शस्त्रों की शास्त्रीय शिक्षा देने के उपरान्त विद्यार्थियों को प्रत्येक अस्त्र-शस्त्र को व्यावहारिक रूप से चलाने का अभ्यास भी कराया जाता था । द्विसन्धानादि महाकाव्यों में बालक को धनुर्विद्या की व्यावहारिक रूप से शिक्षा देने १. अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, पृ० १२१ २. Mookerji, Radha Kumud Ancient Indian Education, p. 497 ३. चतुर्दशापि हि विद्यास्थानानि निजनामवत्, कृत्वा कण्ठगतान्यागात्पुरं दशपुरं ययौ ।। - परि०, १३.७ ४. पाठ पाठं च शास्त्राणि सगरोऽपि दिने दिने । ५. पाठतोऽनुभवतश्च विदधे हृदयङ्गमम् । ६. वही — त्रिषष्टि०, २.३.४५ - त्रिषष्टि०, २.३.३३ तथा २.३.२५-४७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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