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________________ शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान ४१७ थे । तदनन्तर शिष्य गुरु का अनुसरण करते थे । वराङ्गचरित में इसी विधि की ओर संकेत करते हुए 'अध्यापन' एवं 'अध्ययन' क्रमशः गुरु एवं शिष्य की शिक्षापरक गतिविधियों को सूचित करते हैं । " २. पुनरावृत्तिविधि गुरु द्वारा पढ़ाए गए पाठ को धारण करने के लिए शिष्य उसकी पुनः पुनः प्रवृत्ति कर हृदयांगम करते थे । 'श्रवरण', 'संग्रहण' तथा 'धारण' इस विधि को मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं थीं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में निर्दिष्ट 'पाठ' 'अनुभव' तथा 'अवधारण' को प्रक्रियाएँ इसी विधि की ओर संकेत करती हैं । ४ ३. प्रश्नोत्तर विधि इस विधि के अन्तर्गत शिष्य श्रध्यापक से पूर्व - पठित विषय से सम्बन्धित संशयों के विषय में प्रश्न करते थे और शिक्षक इन संशयों का निवारण करते थे । इस विधि के अन्तर्गत विज्ञान' अर्थात् विवेकपूर्ण ज्ञान, 'ऊहन' अर्थात् चिन्तन मनन तथा 'अपोहन' अर्थात् अन्वयव्यतिरेक बुद्धि द्वारा पठित विषय की अन्विति विठाने की युक्तिसंगतता आदि विभिन्न प्रक्रियाएं समाविष्ट थीं । ६ वराङ्गचरित महाकाव्य में 'सुशिष्य' के लिए इसकी अनिवार्यता पर विशेष बल दिया गया है । ७ [0 १. अध्यापनं चाध्ययनं च । - वराङ्ग०, ३१.६७, तथा तु० पदार्थ मुखाच्छृण्वन्नङ्गान्येकादशापि हि । पादानुसारी भगवान्व्रजोऽधयाय धीनिधिः ।। २. पाठं पाठं च शास्त्राणि सगरोऽपि दिने दिने । ३. शुश्रूषताश्रवरण संग्रहधारणानि । ४. पाठतोऽनुभवतश्च विदधे हृदयङ्गमम् ।। — परि०, १२.१३७ ६. विज्ञानमू हनमपोहनमर्थतत्त्वम् । ७. वही, १.१४ -fagfor ० १.४४५ —वराङ्ग०, १.१४ — त्रिषष्टि०, २.३.३३ ५. उपाध्यायेनाऽप्यभग्नान् संशयान् सगरः सुधीः । - - वही, २.३.४६ —वराङ्ग०, १.१४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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