SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज में प्रतिपादित हुए हैं तथापि तत्कालीन शिक्षण पद्धति में शिष्यों की विभिन्न श्रेणियों की ओर भी इनसे महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । वराङ्गचरितकार ने विभिन्न उपमानों की सहायता द्वारा जिन चौदह प्रकार के शिष्य भेदों को विशेष रूप से स्पष्ट किया है उनका विररण इस प्रकार है ---- २ मिट्टी - सुनते समय प्रभावित होना तदनन्तर उपेक्षा भाव दिखाना । २. झाडू – असार ग्राहक होना तथा सार वस्तु को छोड़ देना । ३. भैंसा - श्रवणाश्रवरण दोनों अवस्थाओं में समान बुद्धि होना । ४. हंस-क्षीर- नीर न्याय से वस्तुओं को विश्लेषित करने में समर्थ होना । ५. शुक - जितना सुन लिया, विना विवेक के ही उसे रट लेना । ६. बिल्ली - चालाकी से ज्ञानार्जन का केवल मात्र ढोंग करना । ७. बगुला - सुनने का आडम्बर करना । ८. मच्छर - गुरु एवं कक्षा को परेशान करना । ६. बकरा - बहुत देर में वस्तु ग्रहरण करना तथा कामी स्वभाव होना । १०. जोंक - दोषों को ही ग्रहण करना तथा गुणों को छोड़ देना । ११. छिद्रित घट - एक कान से सुनना तथा दूसरे कान से निकाल देना । १२. पशु - बल प्रयोग के भय से अध्ययन में रुचि लेना । १३. सर्प - कुटिल स्वभावी होना तथा कक्षा आदि में प्रातङ्क फैलाना । १४. शिला - पत्थर के समान जड़बुद्धि होना । आदर्श शिष्य के आठ गुणों में सेवा परायणता, श्रवण, संग्रहण, धाररण, तर्करणा, ऊह, अपोह तथा अर्थतत्त्व के ज्ञान की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है । शिक्षण-विधियां शिक्षाशास्त्रीय मूल्यों की अपेक्षा से जैन महाकाव्यों में निरूपित निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण शिक्षण विधियों पर प्रकाश डाला जा सकता है१. पाठविधि - शिक्षक शिष्य को पाठ विधि द्वारा पहले पहल विवेच्य वस्तु की शिक्षा देते १. मृत्सारिणी महिषहंसशुकस्वभावा मार्जारकङ्कमशकाजजलूकसाम्याः । सच्छिद्र कुम्भपशु सर्प शिलोपमानास्ते श्रावका भुवि चतुर्दशधाभवन्ति । - वराङ्ग०, १.१५ २. शुश्रूषताश्रवण संग्रहधारणानि विज्ञानमू हनमपोहनमर्थतत्त्वम् । —वराङ्ग०, १.१४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy