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________________ ४१२ १. गुरु-शिष्य सम्बन्ध शिक्षक का स्वरूप जैन संस्कृत महाकाव्यों में शिक्षक के लिए 'गुरु' ' ; उपाध्याय '२, 'आचार्य' 3 ‘वाचनाचार्य’,४ ‘प्रध्यापक ५ प्रादि संज्ञाओं का प्रयोग हुआ है । द्विसन्धान महाकाव्य के अनुसार राज्य के विभिन्न उच्चाधिकारी भी राजकुमारों को शिक्षा देने का कार्य किया करते थे । ६ मुनि लोग भी त्रयी आदि विद्यानों की शिक्षा देते थे। जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज आदर्श शिक्षक की योग्यताएं - गुरु प्रथवा शिक्षक को प्रतिभाशाली तथा विद्वान् होना चाहिए । द्विसन्धान के अनुसार विषय के सारभूत अर्थ का ज्ञान होना, लोक व्यवहार के उपदेश देने का सामर्थ्य होना, काव्य-न्याय, व्याकरणादि महत्वपूर्ण विषयों के पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष दोनों पर समान अधिकार होना आदि शिक्षक की आवश्यक योग्यताएं मानी गईं हैं। 5 वराङ्गचरित के अनुसार उपदेष्टा के सन्दर्भ में गुरु की योग्यताओं पर प्रकाश डाला गया है। इन योग्यताओं में गुरु का तत्त्वज्ञ होना, संयमी होना, स्थिर बुद्धि होना, तथा परोपकारी होना आदि गुरु की चरित्र सम्बन्धी योग्यताएं स्वीकार की गईं हैं । वाक्चातुरी द्वारा प्रभावित करने की क्षमता रखना तथा शिष्यों की योग्यतानुसार उपदेश-विधियों का प्रयोग करना प्रादि भी गुरु की उल्लेखनीय विशेषताएं मानी गईं हैं । १० गुरु के लिए निर्देश दिए गए हैं कि वह मन्दबुद्धि को साधारण ज्ञान दे तथा प्रतिभाशाली छात्र को विषय का मेदोपभेद सहित सूक्ष्म परिचय दे । ११ १. द्विस०, ५.६७; पार्श्व०, ४.२८ परि०, १२.१६६ २. त्रिषष्टि०, ८.३.४६ ३. परि०, १२.१७८ ४. वही, १२.१८२ ५. शान्ति० १.१११ " ६. आन्वीक्षिकीं शिष्टजनाद्यतिभ्यस्त्रयीं च वार्तामधिकारकृद्भ्यः । वक्तुः प्रयोक्तुश्च स दण्डनीति विदां मतः साधु विदाञ्चकार ॥ ७. यतिभ्यस्त्रयीम् । वही, ३.२५ ८. , द्विस० १.३५ तथा पदकौमुदी टीका, पृ० १७ ६. वराङ्ग०, १.१० १०. वही, १.१०, १७ १९. वही, १.१७, ३०.४-१० — द्विस ०, ३.२५
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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