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________________ शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान उपनयन संस्कार को स्थिति उपनयन संस्कार के अवसर पर बालक को सावित्री मंत्र को भी कण्ठस्थ करना पड़ता था । वैदिक संस्कृति के मतावलम्बी बालकों के लिए उपनयन संस्कार का औचित्य था क्योंकि वे इस संसार के सम्पन्न होने के बाद वैदिक विषयों का हो अध्ययन करते थे किन्तु क्षत्रिय राजकुमारों के लिये यह आवश्यक नहीं था कि वे वैदिक विषयों का ही अध्ययन करें । राजकुमारों को इस युग में अन्य न्यायव्याकरण तथा युद्ध विद्या की भी शिक्षा दी जाती थी । अतः प्रारम्भिक अवस्था में ये बालक लिपिज्ञान तथा अङ्कज्ञान से विद्या का प्रारम्भ करते थे इसलिए अक्षर स्वीकरण इस युग में विशेष लोकप्रिय हो गया था ।' दूसरे, उपनयन संस्कार को ब्राह्मण संस्कृति के संस्कार के रूप में भी समझा जाने लगा था इस कारण जैन एवं बौद्ध मतावलम्बी परिवारों ने उपनयन संस्कार को अधिक महत्त्व नहीं दिया । वैसे भी ईस्वी की पांचवीं शताब्दी के बाद उपनयन संस्कार का प्रचलन बहुत कम हो गया था । धर्मसूत्रों से भी ज्ञात होता है कि ऐसे भी कई परिवार थे जिनमें एकदो पीढ़ी तक यह संस्कार हुआ ही नहीं । शैक्षिक - मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो विद्या का श्रीगणेश लिपि-ज्ञान से ही मानना उचित जान पड़ता है जो 'अक्षर स्वीकरण' नामक संस्कार के अवसर पर तो सम्भव हो सकता था किन्तु उपनयन संस्कार के अवसर पर वैदिक मंत्रों को लिपिबद्ध करने की आज्ञा न होने के कारण संभव नहीं था । उपनयन संस्कार के अवसर पर बालक ७-८ वर्ष की श्रायु का होता था जबकि पांच वर्ष की आयु को विद्यारम्भ करने की उपयुक्त आयु मानी गई है । इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि उपनयन संस्कार से पहले पांच-छः वर्ष की आयु में सभी बालकों को वर्णमाला का ज्ञान करा दिया जाता होगा, तभी वह उपनयन संस्कार के अवसर पर सावित्री मन्त्र के उच्चारण एवं कण्ठस्थ करने की क्षमता रख सकता था । मध्यकालीन भारत में पूर्ण रूप से यद्यपि 'उपनयन' संस्कार को त्यागा नहीं गया किन्तु वैदिक काल में 'उपनयन' को जो महत्त्व प्राप्त था वह इस युग में 'अक्षर स्वीकररण' ने प्राप्त कर लिया था । अधिकांश जैन राजकुमार इसी संस्कार से विद्यारम्भ करते थे । * रघुवंश में भी अक्षरारम्भ संस्कार से ही विद्या प्रारम्भ होने का उल्लेख प्राया 12 १. अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, २. वही, पृ० २०२ ३. वही, पृ० २०७ ४. द्विस०, ३. २४; आदि०, ३८.१०२-४; त्रिषष्टि०, १.२.६६३ ५. रघु०, ३.२८ - २६ पृ० २०४-५ ४११
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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