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सप्तम अध्याय
शिक्षा, कला एवं ज्ञान-विज्ञान
(क) शिक्षा मध्यकालीन भारत में शैक्षिक वातावरण
सातवीं शती ईस्वी तथा उसके उपरान्त परिवर्तित राजनैतिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप भारतीय शिक्षा संस्था जनसामान्य की अपेक्षा से ह्रासोन्मुखी दिशा की ओर अग्रसर होने लगी थी। ऐतिहासिक अांकड़े बताते हैं कि आठवीं शती में केवल चालीस प्रतिशत द्विज ही साक्षर थे उस पर भी शूद्रों एवं महिलाओं की साक्षरता की दृष्टि से दयनीय स्थिति बनी हुई थी।' सर्वविदित ही है कि किसी भी देश के शैक्षिक-वातावरण की प्रगति एवं ह्रास का एक मुख्य कारण तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियाँ भी होती हैं। दुर्भाग्यवश मध्यकालीन सामन्त राजा युद्धों में ही व्यस्त रहे, इस कारण से सार्वजनिक शिक्षा का आशानुकूल प्रचार व प्रसार नहीं हो पाया। दूसरी ओर राज-प्रासादों तथा धनिक वर्ग के राजकुमारों के लिए शिक्षा का उत्कृष्ट वातावरण बना हुआ था। यदि राजकुमार शिक्षित न हो तो राज्य के घुण लगी लकड़ी के समान खोखला हो जाने की संभावना की जाती थी। सामान्यतया 'शिक्षा' का महत्त्व मनुष्यों के लिए ही नहीं पशुत्रों के सन्दर्भ में भी स्वीकार किया जाने लगा था ।
मध्यकालीन शिक्षा वर्णाश्रम व्यवस्था एवं सम्प्रदायगत धार्मिक चेतना से प्रभावित थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ग ब्राह्मण संस्कृति की शिक्षा व्यवस्था से यद्यपि पूर्णतया जड़े हुए थे, किन्तु इन तीनों वर्गों की शिक्षा चेतना में भी अन्तर था । ब्राह्मणवर्ग १४ प्रकार की विद्याओं का पारम्परिक पद्धति से अध्ययन
१. ए० एस० अल्तेकर, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, वाराणसी, १९६८,
पृ० १३६-३७ २. भज्यते राज्यं ह्यविनीतपुत्रं धुणाहतं काष्ठमिव क्षणेन ।
-द्विस०, ३.४ ३. पशवोऽपि हि शिक्ष्यन्ते नियुक्तः किं पुनः पुमान् ।
-परि० तथा तु०-पादि०, १६.६८