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________________ ४०५ धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ सातवीं शताब्दी में तथा उसके बाद जैनाचार्यों द्वारा निरन्तर रूप से संस्कृत भाषा को साहित्य साधना के माध्यम रूप में विशेष प्रोत्साहित किया जबकि इससे पूर्व 'तत्त्वार्थसूत्र' को छोडकर सम्पूर्ण जैन वाङ्मय का माध्यम प्राकृत भाषा ही रही थी । भाषा विषयक इस रूढ़िवादिता को तोड़ना इसलिए भी आवश्यक था कि संस्कृत भाषा राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक आदान-प्रदान की सम्पर्क भाषा बनी हुई थी। जैनाचायों ने इसी पृष्ठभूमि में जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने हेतु प्राकृत का मोह छोड़कर संस्कृत भाषा में भी साहित्य सर्जना करने के विशेष औचित्य को देखा । महाकाव्यों के साक्ष्य जैन धर्म की तत्कालीन स्थिति पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । अनेक जैन देवशास्त्रीय मान्यताएं यद्यपि परम्परागत थीं तथापि आलोच्य काल में उनका प्रस्तुतीकरण नवीन अपेक्षाओं से किया जाने लगा था । प्राचीन काल से ही जैन धर्म धार्मिक क्षेत्र में की जाने वाली हिंसा का विरोध करता आ रहा था । आलोच्य काल में बलिप्रथा समाज में बहुत जोरों से प्रचलित होती जा रही थी । परिणामतः धर्म के नाम पर समाज में अन्धविश्वास तथा क्रूरता का वातावरण व्याप्त था । किन्हीं - किन्हीं क्षेत्रों में तो बलिप्रथा पशु का वध करने की मर्यादा को तोड़ कर नरबलि तक पहुंच चुकी थी । ऐसी धार्मिक भयावह स्थिति में जैन अहिंसा का सिद्धान्त ही निर्दोष मारे जाने वाले लोगों को बचा सकने में समर्थ था । जैनाचार्यों ने बलिप्रथा के साथ सिद्धान्ततः यद्यपि थोड़ा बहुत समझौता भी किया किन्तु उन्होंने बलि पूजा के अवसर पर प्राणियों की हिंसा करने का सदैव घोर विरोध किया । गुजरात के इतिहास में राजा कुमारपाल के समय में तो एक ऐसा समय भी आया जब जैन अहिंसा के सिद्धान्त को राजकीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई जिसके परिणाम स्वरूप राज्यों में सभी कसाइयों की दुकानों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा अनुदान के रूप में उनकी आजीविका का व्यय राज्य की ओर से दिया जाने लगा था । मध्यकालीन प्रवृत्तियों पर भी प्रेरित होकर जैन दर्शन एक र अपनी तत्त्वमीमांसा का स्वतन्त्र रूप से विकास करने में प्रवृत्त था तो दूसरी ओर महाकाव्यों के लेखकों ने जैन दार्शनिक मान्यताओं का विरोधी दार्शनिक सम्प्रदायों के सन्दर्भ में विशेष प्रौचित्य सिद्ध करने की ओर भी रुचि ली है । सांख्य, न्याय, मीमांसा आदि वैदिक दर्शनों की तत्त्वमीमांसा का जैन महाकवियों ने जोरदार खण्डन किया है जो इस तथ्य का प्रमाण है कि जैन तर्कशास्त्र विशेष प्रगति पर जैन महाकाव्यों के साक्ष्य जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । 'अनेकान्त व्यवस्था' युग
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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