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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
करवाने का राजकीव आदेश देना भी एक महत्त्वपूर्ण घटना है। वस्तुपाल तथा कुमारपाल की धार्मिक तीर्थ यात्राओं के अवसर पर जिन अनेक धार्मिक मन्दिरों एवं तीर्थस्थानों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार होने की सूचना मिलती है उनमें भी हिन्दू एवं जैन दोनों धर्मों के मन्दिर सम्मिलित थे। जैन धर्मानुयायी वस्तुपाल द्वारा एकल्लवीरा देवी की पूजा करने और प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा सोमनाथ की स्तुति में स्तोत्र लिखने की घटनाएं यह द्योतित करती हैं कि तत्कालीन युग प्रवृत्ति दोनों धर्मों की धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ाने की ओर विशेष प्रयत्नशील रही थी। जैन धर्म की पूजा-पद्धति हिन्दू-पूजा पद्धति के अनुरूप होने लगी थी।
____ जैन महाकाव्यों में मध्यकालीन जैन धर्मव्यवस्था का विशद चित्रण हुआ है। गृहस्थ धर्म तथा मुनि धर्म दोनों की समसामयिक स्थिति के समन्वय में जैन महाकाव्यों का विशेष योगदान रहा है।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से सातवीं शताब्दी जैन धर्म के सामाजिक एवं धार्मिक मूल्यों के पुनर्निर्धारण की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण शताब्दी रही है तथा इसी कालावधि से ही अालोच्य जैन संस्कृत महाकाव्यों का निर्माण होना भी इन बदले हुए युग मूल्यों का परिणाम समझना चाहिए । बौद्ध काल से लेकर गुप्त साम्राज्य के काल तक ऐसा लगता है कि जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में समाज में अपना स्वतन्त्र स्थान बनाना चाहता था। प्राकृत भाषा के प्रति कट्टरता, वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध तथा वेदों के प्रामाण्य के प्रति शङ्का तथा उनका खण्डन आदि कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो चुकी थीं जिनसे जैन धर्म तथा ब्राह्मण धर्म में पर्याप्त वैमनस्य भी उत्पन्न हो गया था किन्तु पालोच्यकाल में रविषेण, जिनसेन, तथा सोमदेव आदि कुछ ऐसे समन्वयवादी उदार जैनाचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को एक ऐसे धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जिससे उनके अपने धर्म का ध्रुव एवं पारमार्थिक रूप भी नष्ट न हो सका तथा ब्राह्मण व्यवस्था के अनेक लोकप्रिय मूल्यों को भी स्वीकार कर लेने में उन्हें कोई हानि नजर नहीं आई । वास्तव में जैनाचार्यों द्वारा किए गए इस प्रकार के समाजशास्त्रीय समझौते आगे चलकर दोनों धर्मों की प्रगति में विशेष सहायक सिद्ध हुए । प्रारम्भिक चरणों में जटासिंह जैसे कट्टर ब्राह्मण विरोधी जैनाचार्यों ने इस वैचारिक समझौते के विरुद्ध आवाज भी उठाई तथा विशुद्ध सैद्धान्तिक धरातल पर ब्राह्यण व्यवस्था की मान्यताओं का खण्डन किया परन्तु सामाजिक दृष्टि से उनका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ पाया। जिनसेनाचार्य, सोमदेवाचार्य जैसे जैन धर्म के युगचिन्तकों के समक्ष जटासिंह नन्दि का कट्टरपन्थी रवैया प्रभावहीन होता गया। इस प्रकार बारहवीं तेरहवीं शताब्दी तक जैन धर्माचार्यों ने वर्णव्यवस्था को, वेदों तथा धर्मशास्त्रों की प्रामाणिकता को, ब्राह्मण-पौराणिक मान्यताओं को तथा हिन्दू पूजा पद्धति को मुक्त कण्ठ से स्वीकार कर लिया था।