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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ
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स्वसंवेदन यह सिद्ध करता है कि जीव की सत्ता होती है।' ज्ञान स्वसंवेदी नही, बल्कि इसको जानने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की प्रावश्यकता होती है । इस प्रमाणसम्बन्धी-अनवस्था-दोष की संभावनाओं का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ज्ञान वेद्य एवं वेदक दोनों है ।२
इस प्रकार जैन संस्कृत महाकाव्यों के लेखकों ने भारतीय दर्शन की अनेक विवादपूर्ण मान्यताओं की युगानुसारी तर्क-शैली में पुनर्विवेचना की है और नए-नए तर्क जुटाए हैं। महाकाव्यकार जैन दार्शनिकों का मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि वे जैनदर्शन की युगीन प्रवृत्तियों के अनुरूप विभिन्न जनैतर वादों की स्याद्वादी पृष्ठभूमि में पालोचना कर सकें। उन्होंने अनेक दर्शनों की मान्यताओं का यद्यपि खण्डन किया है, तथापि सिद्धान्तः वे यह भी स्वीकार करते हैं कि उपयुक्त वादों को विभिन्न नयों अथवा दृष्टियों के रूप में अनेकान्तवादी तर्क-पद्धति में स्थान दिया जा सकता है। निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन संस्कृत महाकाव्यों का मुख्य उद्देश्य यद्यपि जैन धर्म और दर्शन का प्रचार व प्रसार करना रहा था तथापि ये महाकाव्य ब्राह्मण धर्म और संस्कृति की युगीन गतिविधियों के प्रतिपादन में भी पूरी तरह से विमुख नहीं हैं । ब्राह्मण संस्कृति की धार्मिक प्रवृत्तियों, देवशास्त्रीय मान्यताओं पूजापूरक कर्मकाण्डों के चित्रण में भी जन कवियों ने पर्याप्त रुचि ली है । अधिकांश जैन कवि जैन धर्म के प्राचार्य थे उसके बाद भी ब्राह्मण धर्म के प्रति उनकी धार्मिक सहिष्णुता
और प्रादरभाव यह बताता है कि पहले की अपेक्षा जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के बहुत निकट प्राता जा रहा था । जैन कवियों ने ब्राह्मण धर्म के अनुयायी व्यक्तित्वों को आधार बनाकर काव्यों का प्रणयन भी किया। वैसे ही ब्राह्मण धर्मानुयायी लेखकों ने भी जैन महापुरुषों को लक्ष्य कर ऐतिहासिक काव्य लिखे। जैन महाकवि नयचन्द्रसूरि द्वारा रचित हम्मीर महाकाव्य तथा महाकवि सोमेश्वर द्वारा रचित कीर्ति कौमुदी महाकाव्य इसके क्रमशः उदाहरण दिए जा सकते हैं। आलोच्य काल की यह भी एक उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटना है कि कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य हेमचन्द्र की धर्मप्रभावनाओं से प्रभावित होकर राजा कुमारपाल ने जैन धर्म को अङ्गीकार किया। उसके द्वारा सम्पूर्ण राज्य में जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को लागू
१. प्रतिजन्तु यतो जीवः स्वसंवेदनगोचरः । सुखदुःखादिपर्याय राक्रान्त: प्रतिभासते ।।
-चन्द्र०, २.५५ २. न चास्वविदितं ज्ञानं वेद्यत्वात्कलशादिवत् । -वही, २.५६