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________________ ४०२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज मायावाद के अनुसार इहलौकिक सुखों को पुरुषार्थ मानना और पारमार्थिक सुखों को हेय बताना उन्मत्तावस्था का द्योतक है।' १३. तत्त्वोपप्लववाद - वीरनन्दीकृत चन्द्रप्रभचरित में इस वाद का 'नास्तिकागममाश्रित' के रूप में उल्लेख पाया है ।' तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकों से भी एक कदम आगे थे। चार्वाक कम से कम चार भूतों तथा 'प्रत्यक्ष' प्रमाण को तो मानते थे, परन्तु तत्त्वोपप्लववादी इन सब पदार्थों को भी अस्वीकार कर देते हैं। जयराशि के 'तत्त्वोपल्लवसिंह' में इस वाद की विशेष चर्चा पाई है। तत्त्वोपप्लववादी जीव और अजीव की तात्त्विक स्थिति का ही अपलाप करते हैं, फलत: जीव के धर्म-अधर्म; बन्ध मोक्ष आदि भी स्वयं ही बाधित हो जाते हैं ।३ चन्द्रप्रभचरित में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि बन्ध-मोक्ष प्रादि धर्म-धर्मी पर ही अवलम्बित हो सकते हैं, परन्तु जब जीव ही प्रसिद्ध है तो उसके धर्मों की चर्चा करना व्यर्थ है।४ तत्त्वोपप्लववादी की मान्यता है कि जीव-अजीव आदि तत्त्व पुरातन मनोवृत्ति के परिणाम स्वरूप अपना औचित्य खो चुके हैं, ठीक वैसे ही जैसे पुराने वस्त्र की तह को खोलते समय वह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में ही छिन्न-भिन्न हो जाता है और पहनने के काम नहीं पाता। वैसे ही जीव-अजीव आदि तत्त्ववादियों की मान्यताएं भी विचारने पर छिन्न-भिन्न हो जाती हैं ।५ तत्त्वोपप्लववादियों की उपर्युक्त मान्यताओं का जैन दार्शनिकों ने खण्डन करते हुए कहा है कि संसार के सभी प्राणियों को प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सुख-दुःख का १. पद्मा०, ३.१७२ २. केचिदित्थं यतः प्राहुर्नास्तिकागममाश्रितः ।। -चन्द्र०, २.४४ ३. अजीवश्च कथं जीवापेक्षस्तस्यात्यये भवेत् । -वही, २.४५ ४. कथं च जीवधर्माः स्युबन्धमोक्षादयस्ततः । सति धर्मिणि धर्मा हि भवन्ति न तदत्यये । -वही, २.४६ ५. तस्मादुपप्लुतं सर्व तत्त्वं तिष्ठतु संवृतम् । प्रसार्यमाणं शतधा शीर्यते जीर्णवस्त्रवत् ।। -वही, २.४७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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