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________________ धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ ४०१ संसार में रूप-वैचित्र्य तथा गुण-वैचित्र्य तथा सुखों और दुःखों की व्यक्तिपरक विभिन्नता यह सिद्ध करती है कि पूर्व-संचित शुभाशुभ कर्मों का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता ही है।' अन्य लोकायतिक वाद १२. मायावाद पद्मानन्द महाकाव्य में निर्दिष्ट प्रस्तुत मायावाद शंकराचार्य के मायावाद से सर्वथा भिन्न है । मायावादी की यह मुख्य स्थापना है कि संसार में कुछ भी तात्त्विक नहीं है ।। दृश्यमान् सम्पूर्ण जगत् माया से आच्छादित है तथा स्वप्न एवं इन्द्रजाल की भांति अयथार्थ है ।२ संसार के सभी सम्बन्ध और पाप-पुण्य की व्यवस्था भी मिथ्या ही है 3 मायावादी इस लोक में उपलब्ध सुखों से ही सन्तुष्ट रहने का उपदेश देते हैं तथा तपश्चर्या प्रादि द्वारा पारलौकिक सुखों की प्राप्ति को भ्रम मानते हैं।४ दृष्टान्त द्वारा अपनी मान्यता को स्पष्ट करते हुए मायावादी का कहना है कि एक शृगाल मुख में मांस के टुकड़े को दबाते हुए नदी-जल में दिखाई देती हुई मछली को पाने के लिए झपटा तथा मांस के टुकड़े को नदी-तट पर ही छोड़ पाया, परन्तु मछली जल के अन्दर घुस गई और मांस का टुकड़ा भी गिद्ध झपटा मारकर ले गया । मायावादी के तर्को का खण्डन करते हुए कहा गया है कि संसार में वस्तुसत्ता का अपलाप नहीं किया जा सकता है क्योंकि असत् वस्तु से कार्य-सम्पादन वैसे ही असम्भव है जैसे कि स्वप्नदृष्ट वस्तु से प्रयोजन-सिद्धि ।६ जैन दृष्टि के अनुसार १. पद्मा०, ३.१५३-५५ २. महामतिः प्राह न तत्त्वतः किमप्यस्त्यत्र मायेयमहो विज़म्भते । विलोक्यमानं निखिलं चराचरं स्वप्नेन्द्रजालादिनिभं विभाव्यते ।। __-वही, ३.१६६ ३. शिष्यो गुरुः पुण्यमपुण्यमात्मजः पिता कलत्रं रमणः परो निजः ।। इत्यादिकं यव्यवहार इत्यसौ किञ्चित् पुनश्चञ्चति नैवं तात्त्विकम् ।। -वही, ३.१६७ ४. वही, ३.१६६ ५. मांसं तटान्ते जम्बुको मीनोपलम्भाय लघुप्रधावितः। मीनो जलान्त: प्रविवेश सत्वरं मांसं च गृध्रो हरति स्म तद् यथा ॥ -वही०, ३.१६८ ६. वही, ३.१७१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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