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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज के भोगों को छोड़कर जो पारलौकिक सुखों की ओर प्राकृष्ट होता है, वह हस्तगत फल को छोड़कर स्वप्नदृष्ट फल की स्पृहा कर रहा होता है । " पापकर्मों तथा पुण्य कर्मों का भी प्रौचित्य नहीं । भूतवादी पूछता है कि जिस पत्थर की लोग कपूर-धूप आदि से पूजा करते हैं तो क्या उस पत्थर ने पहले कोई पुण्य किया था ? वैसे ही एक दूसरे पत्थर पर लोग मूत्रादि करते हैं, तो क्या उसने पहले कोई पाप किया था ?४ अपनी इस प्रकार की तत्त्वमीमांसा से भूतवादी सांसारिक भोग-विलासों को ही मानव-जीवन का लक्ष्य बताता है । ' ५ ४०० आत्मा का निषेध करने वाले भूतवादियों की धारणाओंों पर प्राक्षेप करते हुए कहा गया है कि ज्ञानलक्षण युक्त जीव शुभाशुभ कर्मों के कारण सुख एवं दुःख को भोगने के लिए संसार में जन्म लेता है । जीव के पुनर्जन्म नहीं होने की मान्यता का खण्डन करते हुए कहा गया है कि नवजात शिशु पूर्वजन्म के संस्कारों से ही माता के स्तन-पान की ओर प्रवृत्त होता है । ७ भूत चतुष्टय से जीवशक्ति की उत्पत्ति होने की मान्यता को प्रसङ्गत ठहराते हुए अमरचन्द्र सूरि का कहना है कि खाना पकाते समय बर्तन में अग्नि, जल, वायु तथा पृथ्वी - इन चारों तत्त्वों का संयोग तो रहता ही है, फिर क्या इस बर्तन में कभी जीव की उत्पत्ति हुई ? १. विहाय भोगानिहलोकसंगतान, क्रियेत यत्नः परलोककांक्षया । प्रत्यक्षपाणिस्थफलोज्झनादियं स्वप्नानुसंभाव्यफल स्पृहा हहा |! - पद्मा०, ३.१२१ धर्मोऽप्यधर्मोऽपि न सौख्यदुःखयोर्हेतू विना जीवमिमौ खपुष्पवत् ॥ — वही, ३.१२४ ३. कर्पूर कृष्णा गुरुघूपधूपनैः सम्पूज्यते पुण्यमकारि तेन किम् । व - वही, ३१२५ ग्राव्णः परस्योपरि मानवव्रजर्न्यस्य क्रमो मूत्रपुरीशसूत्ररणा । ४. यद् रच्यते चूर्णकृते च खण्डयते सन्दह्यते पापमकारि तेन किम् ।। २. ५. वही, ३.१२६ ताभिः सुखं खेलतु निर्भयं विभुर्मराल रोमावलितूलिकांगकः ॥ - वही, ३,१२६ भोज्यानि भोज्यान्यमृतोपमानि च पेयानि पेयानि यथारुचि प्रभो ! — वही, ३.१३० ६. वही, ३.१३७-३६ ७. तज्जातमात्रः कथमर्भको भृशं स्तने जनन्या वदनं निवेशयेत् ? ८. वही, ३.१४६-५१ — वही, ३.१४४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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