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________________ धामिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ ३६६ शताब्दी ई० में वराङ्गचरितकार ने इन सभी देवसम्बन्धी वादों का खण्डन किया है । ' जटासिंह ने वैदिक देवताओं तथा यज्ञानुष्ठानों के औचित्य को भी नकारा है ।। इनके खण्डन का मुख्य तर्क यह रहा है कि कर्म-सिद्धान्त की मान्यता को उपर्युक्त वाद प्रसिद्ध ठहरा देते हैं। एक दुष्ट व्यक्ति तथा एक विद्वान् व्यक्ति जब एक ही देवता की प्राराधना से उसक कृपा का लाभ उठाता है तो निश्चित रूप से उस देवता का महत्त्व भी कम होता है ।३ अनेक दृष्टान्तों द्वारा जटासिंह ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि सभी देवता सामान्य मनुष्य की भांति अनेक प्रकार की त्रुटियों को लिए हुए हैं। इसी प्रकार ज्योतिषीय ग्रहों एवं नत्रत्रों के मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को भी जटासिंह उपेक्षा-भाव से देखते हैं। उनके अनुसार बड़े से बड़े ग्रह तथा नक्षत्र जब स्वयं ही अपनी रक्षा नहीं कर सकते तो भला दूसरों का वे कितना उपकार कर सकेंगे ? ११. चार्वाकाभिमत भूतवाद चार्वाक अनुयायी 'भूतवादी' कहलाते हैं। इनके अनुसार जीव अथवा आत्मा नामक कोई सत्ता नहीं है जो परलोक जा सके। शरीर के अतिरिक्त आत्मा जैसी वस्तु को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी नहीं जाना जा सकता । गुड़, अन्न, जल आदि के संयोग से जेसे कोई उन्मादिका शक्ति स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है वैसे ही भूत-चतुष्टय - पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु के संयोग से देह-निर्माणात्मिका शक्ति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है।६ भूतवादी के अनुसार इस संसार १. वराङ्ग०, २४.२२-३५ २. वही, २४ २४-२६ ३. पललोदनलाजपिष्ठपिण्डं परदत्तं प्रतिमुज्यते च येन। स परानगतिं कथं बिभर्ति धनतृष्णां त्यज देवतस्तु तस्मात् ।। -वही, २४ २७ ४. रविचन्द्रमसो: ग्रहपीडां परपोषत्वमथेन्द्रमन्त्रिणश्च । विदुषां च दरिद्रतां समीक्ष्य मतिमान्कोऽभिलषेद् ग्रहप्रवादम् ।। --वही, २३ ३६ ५. वही, २४ ३२-३३ ६. संयोगवद्भ्यो गुडपिष्टधातकीतोयादिकेभ्यो मदशक्तिवद् ध्रुवम् । -पद्मा० ३.१२३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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