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________________ ३६४ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ३. स्वभाववाद स्वभाववादियों के अनुसार वस्तुत्रों का स्वतः परिणत होना स्वभाव है । उदाहरणार्थ, मिट्टी से धड़ा ही बनता है, कपड़ा नहीं। सूत से कपड़ा बनता है, घड़ा नहीं। इसी प्रकार यह जगत् भी अपने स्वभाव से स्वयं उत्पन्न होता है ।' जटासिंह नन्दि ने इस वाद पर आपत्ति उठाते हुए कहा है कि स्वभाव को ही कारण मान लेने पर कर्त्ता के समस्त शुभ तथा अशुभ कर्मों का प्रौचित्य समाप्त हो जाएगा। जीव जिन कर्मों को नहीं करेगा, स्वभाववाद के अनुसार उनका फल भी उसे भोगना पड़ेगा । इन्धन से अग्नि का प्रकट होना उसका स्वभाव है परन्तु इन्धन के ढेर-मात्र से अग्नि की उत्पत्ति प्रसंभव है । इसी प्रकार स्वर्णमिश्रित मिट्टी या कच्ची धातु से स्वतः ही सोना उत्पन्न नहीं हो जाता। जटाचार्य के अनुसार स्वभाववाद' मनुष्य के पुरुषार्थ को निष्फल सिद्ध कर देता है, जो अनुचित है। ४. यदृच्छावाद यह वाद भी प्राचीन काल से चला आ रहा वाद है। महाभारत में इसके अनुयायियों को 'अहेतुवादी' कहा गया है। गुणरत्न के अनुसार बिना संकल्प के ही अर्थ-प्राप्ति होना अथवा जिसका विचार ही न किया उसकी प्रतकित उपस्थिति होना यहच्छावाद है । यहच्छावादी पदार्थों की उत्पत्ति में किसी नियत कार्य-कारणभाव को स्वीकार नहीं करते । यदृच्छा से कोई भी पदार्थ जिस किसी से भी उत्पन्न हो जाता है । उदाहरणार्थ कमलकन्द से ही कमलकन्द उत्पन्न नहीं होता, गोबर से भी कमलकन्द उत्पन्न होता है । अग्नि की उत्पत्ति अग्नि से ही नहीं, अपितु अररिण १. स्वभाववादिनो ह्य वमाहुः-इह वस्तुनः स्वत एव परिणतिः स्वभावः, सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते । तथाहि-मदः कुम्भो भवति न पटादिः, तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न घटादिः । -षड्दर्शन०, १ पर गुणरत्न टीका, पृ० १६ २. अथ सर्वमिदं स्वभावतश्चेन्ननु वैयर्थ्यमुपैतिकर्मकर्तुः । अकृतागमदोषदर्शनं च तदवश्यं विदुषां हि चिन्तनीयम् ।। -वराङ्ग०, २४.३८ ३. स्वयमेव न भाति दर्पणः सन्न वह्निः स्वमुपैति काष्ठभारः । न हि धातुरुपति काञ्चनत्वं न हि दुग्धं घृतभावमभ्युपत्यवीनाम् । -वराङ्ग०, २४.३६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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