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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ
सृष्टि विषयक प्राचीन वाद १. कालवाद
कालवादियों के अनुसार समस्त जगत् कालकृत है। काल के नियमानुसार ही चम्पा, अशोक, प्राम, आदि वनस्पतियों में फूल तथा फल आते हैं और ऋतु विभाग से ही शीत-प्रपात, नक्षत्र-संचार, गर्भाधान आदि संभव होते हैं।' जटासिंह नन्दि ने कालवादियों का यह कहकर खण्डन किया है कि वनस्पतियों आदि में असमय में भी फल-फूल लगते हैं तथा मनुष्यों आदि की अकाल मृत्यु भी देखी जाती है । २ वर्षाऋतु के न होने पर भी धारासार वृष्टि होती है। अतएव काल के कारण संसार को सुखी एवं दुःखी मानना अनुचित है ।3 काल को सृष्टि का कारण मानने से कर्ता का कर्तृत्व गुण विफल हो जाता है ।।
२. नियतिवाद
नियति से ही सभी पदार्थ उत्पन्न होते हैं । अर्थात् जो जिस समय जिससे उत्पन्न होता है वह उससे नियति रूप से ही उत्पत्ति-लाभ करता है।५ जटासिंह नन्दि ने इस वाद का खण्डन करते हुए कहा है कि इस वाद के मान लेने पर कर्मों के अस्तित्व तथा तदनुसार फल प्राप्त होने में व्यवधान उत्पन्न होगा । कृतकों के प्रभाव से व्यक्ति सुख-दुःखहीन हो जाएगा । सुख से हीन होना किसी भी जीव को अभीष्ट नहीं है ।
१. षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्न टीका, प० १५-१६ २. अथजीवगणेष्वकालमृत्युः फलपुष्पाणि वनस्पतिष्वकाले ।
भुजगा दर्शनैर्दशन्त्यकाले मनुजास्तु प्रसवन्यकालतश्च ।।-बराङ्ग०, २४.२६ ३. अथ वृष्टिरकालतस्तु इष्टा न हि वृष्टि: परिदृश्यते स्वकाले । तत एव हि कालत: प्रजानां सुखदुःखात्मकमित्यभाषणीयम् ।
- वही, २४.३० ४. यदि कालबलात्प्रजायते चेद्विबलः कत्तु गुणः परीक्ष्यमाणः । -वही, २४.२८ ५. नियति म तत्त्वान्तरमस्ति यशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण
प्रादुर्भावमश्नुवते नान्यथा । -षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्न-टीका, पृ० १८ नियतिनियता नरस्य यस्य प्रतिभग्नस्थितिकर्मणामभावः । प्रतिकर्मविनाशनात्सुखी स्यात्सुखहीनत्वमनिष्टमाप्तग्राह्यम् ।
-वही, २४.४१