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________________ ३६२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज 2 उपाय हैं । ' तत्त्वों का अवगमन होना 'सम्यग्ज्ञान', श्रद्धान होना 'सम्यग्दर्शन', तथा पापारम्भों से निवृत्ति होना 'सम्यक्चारित्र' कहलाता है । अर्थात् जीवादि सात तत्त्वों को प्रकाशित करने वाला 'सम्यग्ज्ञान' होता है, जीव आदि तत्त्वों में प्रभिरुचि उत्पन्न करने वाला 'सम्यग्दर्शन' होता है तथा पापमय व्यापारों का परित्याग करना 'सम्यक्चारित्र' कहलाता है । 3 'रत्नत्रय' समग्र रूप से 'मोक्ष' प्राप्ति के उपाय होते हैं इनमें से किसी एक में भी यदि कमी प्रा जाए तो 'मोक्ष' संभव नहीं । कर्मों के बन्ध के कारण राग आदि होते हैं अतएव रागादि की समाप्ति ही कर्मों का क्षय है । 'रत्नत्रय' इसी कर्मक्षय में कारण होता है । ४ बन्धरहित जीव 'मोक्ष' की अवस्था में अग्नि की लपटों के समान तथा एरण्ड के बीज की भांति स्वाभाविक रूप से ऊर्ध्वगामी हो जाता है५, तथा लोक के अग्रभाग में जाकर वह वहीं पर स्थित हो जाता है । २. जैनेतर दार्शनिकवाद जैन संस्कृत महाकाव्यों में विभिन्न प्रास्तिक दर्शनों सहित बौद्ध एवं लोकायतिक दर्शनों के सम्बन्ध में चर्चा परिचर्चा प्राप्त होती है । ७ इन्हें विभिन्न वादों की अपेक्षा से जैन दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है इनका विवेचन इस प्रकार है १. ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयोपायः प्रकीर्तितः । — ज्ञानदर्शनचारित्रैरुपायैः परिणामिनः । २. तत्त्वस्यावगतिर्ज्ञानं श्रद्धानं तस्य दर्शनम् । पापारम्भनिवृत्तिस्तु चारित्रं वर्ण्यते जिनैः ॥ ३. तत्त्वप्रकाशकं ज्ञानं दर्शनं तत्त्वरोचकम् । पापारम्भपरित्यागश्चारित्रमिति कथ्यते ॥ 7. - चन्द्र०, १८.१२३ तथा —धर्म०, २१.१६१, वराङ्ग०, २६.११ - धर्म०, २१.१६२ — चन्द्र०, १८.१२४ रागादेश्च क्षयात्कर्म प्रक्षयो हेत्वभावतः । तस्माद्रत्नत्रयं हेतुविरोधात्कर्मणां क्षये ॥ - चन्द्र०, १८.१२६ ५. धर्म०, २१.१६३, चन्द्र०, १८.१३० ६. लोकाग्रं प्राप्य तत्रासौ स्थिरतामरलम्बते । - वही, १८.१३१ ७. चन्द्र०, २.८६, पद्मा०, ३.१५८-६५, वराङ्ग०, २५.८२-८३, २४.४४-४८ ८ नैरात्म्य शून्यक्षणिक प्रवादाद् बुद्धस्य रत्नत्रयमेव नास्ति । - वराङ्ग०, २५.८२
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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