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________________ धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएँ का द्वार रुक जाना गया है । ६. निर्जरा कर्मों का फल 'भोग' से क्षय होना 'निर्जरा' कहलाता है । इसके कारण आत्मा दर्पण के समान स्वच्छ हो जाती है । 3 एक दूसरी परिभाषा के अनुसार पहले से बंधे हुए कर्मों का क्षय होना अर्थात् झड़ना 'निर्जरा' कहलाती है । धर्मशर्माभ्युदय ने इसे कर्मरूप लोहे के पंजर को जर्जर करने वाली कहा है । " 'निर्जरा' के दो भेद हैं- 'सविपाक - निर्जरा' 'अविपाक - निर्जरा' । स्वाभाविक क्रम से प्रत्येक समय कर्मों का फल देकर क्षीण हो जाना 'सविपाक ' तथा तप द्वारा कर्मफलों के उदय से पूर्व ही क्षीण हो जाना 'अविपाक' निर्जरा कहलाती है । इन्हीं दो प्रकार की निर्जरात्रों को 'अकाम निर्जरा' तथा 'सकाम निर्जरा' भी कहा गया है । ७ तथा ७. मोक्ष ३१ 'संवर' कहलाता है ।' 'संवर' को 'मोक्ष' का मूल माना के अनेक जन्मों से बंधे हुए कर्मों के क्षय को 'मोक्ष' कहते हैं । धर्मशर्माभ्युदय अनुसार 'बन्ध' के कारणों का अभाव तथा 'निर्जरा' से जो समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है उसे 'मोक्ष' कहते हैं । यह 'मोक्ष' उत्तम परिणाम वाले भव्य जीव का ही होता है । १० 'ज्ञान', 'दर्शन' तथा 'चारित्र' इसके एकमात्र & १. आश्रवाणामशेषाणां निरोधः संवरः स्मृतः । - धर्म०, ३. २. श्राश्रवः संसृतेर्मूलं मोक्षमूलं तु संवरः ।। कर्मणां फलभोगेन संक्षयो निर्जरा मता । भूत्यादर्श इवात्मायं तथा स्वच्छत्वमृच्छति ।। & ४. ५. ६. चन्द्र०, १८.१०६ ७. ८. १० चन्द्र०, १८.१०६, धर्म ०, २१.१२२ जर्जरीकृतकर्मायः पञ्जरानिर्जरा मया । — नेमि०, १५.७४ २१.११७ — धर्म०, २१.१२० धर्म०, २१.१२२-२३ अनेकजन्मबद्धानां सर्वेषामपि कर्मणाम् । विप्रमोक्षः स्मृतो मोक्षः आत्मनः केवलस्थिते: ।। - धर्म०, २१.१२१ - नेमि०, १५.७६ तथा भवेत् । कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षो भव्यस्य परिणामिनः । - चन्द्र०, १५.१२३ प्रभावाद् बन्धहेतूनां निर्जरायाश्च यो निःशेषकर्म निर्मोक्षः स मोक्षः कथ्यते जिनैः । चन्द्र०, १८.१२३, धर्म०, २११६१ धर्म०, २१.१६०
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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