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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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है । इस सन्दर्भ में वराङ्गचरित में निर्दिष्ट हिन्दू देवी-देवताओं के सम्बन्ध में अनेक माहात्म्य प्रचलित थे। ब्रह्मा के विषय में यह प्रसिद्ध था कि ये सष्टि के स्रष्टा, रक्षक तथा संहारक हैं । इन्होंने ही शुम्भ तथा निशुम्भ राक्षसों को परस्पर लड़ाकर मार दिया था ।' अग्नि को देवताओं का मुख माना जाता था।इन्द्र वज्र धारण करने वाले पराक्रमी देव के रूप में अभी भी प्रसिद्ध थे।३ कार्तिकेय को भी एक लोकप्रिय देवता का पद मिल चुका था।"
उपयुक्त देवोपासना सम्बन्धी उल्लेखों को वराङ्गचरित में इसलिए स्थान दिया गया है ताकि महाकाव्य का लेखक इन देवताओं के देवत्व को चुनौती दे सके । वराङ्गचरित ने उपर्युक्त सभी देवताओं को ब्राह्मण व्यवस्था से सम्बन्धित होने के कारण प्राप्त नहीं माना है तथा अपने कठोर तर्कों के आधार पर इनके देवत्व की पर्याप्त मालोचना भी की है ।५
शैव सम्प्रदाय
सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय उन्नति पर था। इस सम्प्रदाय के प्राराध्य देव 'शिव' एक स्वतन्त्र देव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे ।६ उत्तर भारत के अतिरिक्त दक्षिण भारत में भी शिव के अनेक मन्दिरों की स्थापना हुई थी। शिव के विषय में कामदेव को भस्म करने, त्रिपुरादि असुरों का संहार करने तथा उमा को पत्नी के रूप में वरण करने की पौराणिक मान्यताएं भी समाज में प्रचलित थीं। ८ बारहवीं शताब्दी में प्रणहिलवाडपत्तन तथा अन्य पर्वतीय प्रदेशों में भी शैव धर्म विशेष लोकप्रिय था। चालुक्य राजा शवधर्मी थे तथा
१. वराङ्ग०, १५.७६ २. अग्निर्मुखं वेद सुरेश्वराणाम् ।
-वराङ्ग०, २५.७५ ३. वज्रायुधो गौतमभार्ययासो विभिन्नवृत्तः किल तेन शप्तः । ४. उमासुतः सोऽपि कुमारनामा मग्नव्रतोऽभूद्धनगोचरिण्या।
-वराङ्ग०, २५.७६ ५. वराङ्ग०, २५.७६-७६ ६. Krishnamoorthy, A. V., Social & Economic Conditions in
Eastern Deccan, Andhra Pradesh, 1970, p. 192-97 ७. वही पृ० १६४ ८. वराङ्ग०, २५.७४ ६. Narang, Dvayasraya, p. 228.