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________________ ३५२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज गई है ।' महाकाव्यों में इन देवों की आयु प्रादि का भी विस्तृत विवेचन मिलता है ।२ जैन देवों का स्वरूप जनसामान्य में यह धार्मिक विश्वास प्रचलित था कि सदाचरण एवं धार्मिक व्रताचरण द्वारा देवपद की प्राप्ति संभव है। अहिंसा आदि पांच अणुव्रतों दिग्वतों, गुणवतों तथा शिक्षाव्रतों का पालन करने से स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता प्रसिद्ध थी । व्रत, उपवास, तपस्या आदि भी देवलोक प्राप्ति के सोपान माने जाते थे। वराङ्गचरित के अनुसार पानी में डूबकर, जलती प्राग में कूदकर, पर्वत से गिरकर, घातक विषपानकर, किसी शस्त्रादि अथवा रस्सी आदि द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या करने वाले लोगों की भी देवगति सम्भव थी किन्तु इस प्रकार के देवों के सुखों की मात्रा न्यून मानी गई है। इसी प्रकार आचारशीलादि से रहित किन्तु शुद्ध दृष्टि वाले मनुष्यों को भी स्वर्गलोक की प्राप्ति संभव थी।६ स्वर्गलोकों में देवताओं का जन्म अकस्मात ही होता है। ये देव अत्यन्त रमणीय शय्या पर जन्म लेते हैं तथा एक मुहर्त के अन्दर ही शारीरिक दृष्टि से परिपूर्ण हो जाते हैं । इन देवों के सामने जब अन्य किन्हीं देवों का जन्म होता है तो ये बहुत प्रसन्न होते हैं, प्रानन्द में तालियाँ बजाते हैं, विस्फोट-ध्वनि करते हैं १. वराङ्ग०, ६५१ २. वराङ्ग०, ६.१२-४६, चन्द्र०, १८.५६-६५, २१.६०-७७ ३. अणुव्रतानां च गुणवतानां शिक्षाव्रतानां परिपालका ये । सम्भूय सर्वद्धिमितीन्द्रलोके महद्धिकास्ते त्रिदशाभवन्ति ।। -वराङ्ग०, ६.३० ४. वही, ६.२५-३० ... जलप्रवेशादनलप्रवेशान्मरुत्प्रपाताद्विष भक्षणाद्वा । शस्त्रेण रज्ज्वात्मवधाभिकामा अल्पद्धिकास्ते दिविजा भवन्ति ।। -वही, ६.२६ ५. नाचारवन्तो विकृता विशीला गुणळपेता व्रतदानहीनाः । असंयता: केवलभोगकाङ्क्षा: सदृष्टिशुद्धास्त्रिदिवं प्रयान्ति ।। -वही, ६.३२ ६. वही, ६.३७ ७. वही, ६.३८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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