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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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तथा नक्षत्र ।' ४. वैमानिक देव -मुख्यतः दो भागों में विभक्त हैं—कल्पज और कल्पातीत । सौधर्म, ऐशान, सानत्कुतार; माहेन्द्र, ब्राह्म, लान्तव, शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, प्रारण तथा अच्युत - इन बारह कल्पों में वास करने के कारण 'कल्पवासी' देवों के भी बारह भेद स्वीकार किए गए हैं। परन्तु इनके ऊपर भी सारस्वत, आदित्य, अहमिन्द्र, आदि 'कल्पातीत' नामक दूसरे प्रकार के वैमानिक देवों की स्थिति रहती है । अहमिन्द्र से ऊपर वेयक देवलोक पड़ता है जिसके नौ विभाग हैं तथा अधोवेयक, मध्य प्रेवेयक एवं ऊर्व ग्रेवेयक नामक तीन उपविभाग भी हैं। प्रैवेयक से ऊपर विजय, जयन्त, वैजयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि नामक पांच विमान एक दूसरे के ऊपर होते हैं। प्राचार्य श्री देशभूषण जी ने शास्त्रसार समुच्चय' में पाए ‘पंचानुत्तराः' की व्याख्या करते हुए विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा पराजित नामक चार विमानों को पूर्व-पश्चिम प्रादि दिशामों के श्रेणीबद्ध विमान के रूप में तया सर्वार्थ सिद्धि को मध्य स्थित पांचवे विमान के रूप में प्रारूपित किया है ।
जैन देवशास्त्र के अनुसार प्रत्येक स्वर्ग में देवों के विभिन्न वर्ग होते हैं। सौधर्म प्रादि वैमानिक देवों के स्वर्ग में दश प्रकार के अधोलिखित देववर्ग पाए । जाते हैं :
१. इन्द्र (प्रधान), २. सामानिक (इन्द्र के समकक्ष), ३. लोकपाल (दण्डनायक आदि), ४. त्रयस्त्रिश (मंत्री, पुरोहित प्रादि), ५. अनीक (सनिक प्रादि), ६. प्रकीर्णक (प्रजा के समान) ७. किल्विषक (निम्न वर्ग), ८. प्रात्मरक्ष (अङ्गरक्षक). ६. अभियोग्य (सेवक वर्ग वाहन आदि के काम में आने वाले तया १०. परिषत्वय (सभासद) । सूर्यादि ज्योतिष्क देवों तथा किन्नर आदि व्यन्तर देवों में त्रयस्त्रिश तथा लोकपाल नामक देववर्गों को स्थिति मानी
१. वराङ्ग०, ६.६, चन्द्र०, १८ ४६, धर्म०, २१.६४ २. वैमानिका द्विधा प्रोक्ता: कल्पातीताश्च कल्पजा: ।
-चन्द्र०, १८.५० तथा धर्म०, २१.६६ ३. वराङ्ग०, ६.७-६, चन्द्र०, १८.५०, धर्म०, २१.६७.६८ ४. वराङ्ग०, ६.१०-११, चन्द्र०, १८.५०-५१, २१.७०-७५ ५. शास्त्रसारसमुच्चय, हिन्दी टीकाकार आचार्य श्री देशभूषण जी, दिल्ली,
१६५७, पृ० १४३ इन्द्राश्च सामानिकलोकपालास्तथा त्रयस्त्रिशदनीकिनश्च । प्रकीर्णका: किल्बिषिकात्मरक्षा अथाभियोग्याः परिषत्त्रयं च ।
-वराङ्ग०, ६.५०
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