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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
जैन मन्दिरों में मुंगे, मोतियों रत्नों आदि की मालाएं लटकी रहतीं थीं।' मन्दिर की भित्तियों में सुन्दर चित्रकारियाँ निबद्ध होती थीं। द्वार के ऊपर कमल में निवास करते हुए लक्ष्मी का चित्र बना रहता था।२ मन्दिर की दीवारों में यक्षों, किन्नरों, भूतों, तीर्थङ्करों, नारायणों, चक्रवर्तियों आदि जैन शलाका पुरुषों के चित्र बने रहते थे। घोड़े, हाथी, रथारोही, सिंह, व्याघ्र, हंस आदि के चित्र सोने, चांदी और ताँबे के आकारों पर काटकर मन्दिर के कपाटों पर निबद्ध किए जाते थे। मन्दिर में जिन प्रतिमाएं विराजमान रहती थीं तथा इन प्रतिमा के सभी स्तम्भ स्फटिक मणि से बने होते थे। इन स्फटिक-स्तम्भों पर भी पुरषों के युगल चित्र काटकर बनाए गए थे। स्तम्भों पर स्वर्ण निर्मित पलश सुशोभित रहते थे ।५ मन्दिर का घरातल (पर्श) भी उत्तम प्रकार के मूंगे, मोती, मरकत, मणि, पुष्परागमणि, पद्मप्रभ (सफ़ेद मणि) प्रादि से सुशोभित रहता धा।६ मन्दिरों की भित्तियों तथा फों पर विशुद्ध स्वर्ण निर्मित कमल, वैदुर्य मणिनिर्मित कमल-नाल, महेन्द्र नील मरिण निर्मित कमलों पर गुंजार करने वाले भ्रमरों की भी मनमोहक चित्रकारी उत्कीर्ण होती थी। वस्तुपाल तथा कुमारपाल की तीर्थयात्राएं
वस्तुपाल तथा कुमारपाल सम्बन्धी साहित्य से अनेक जैन तीर्थ स्थानों के महत्त्व की ऐतिहासिक पुष्टि होती है। प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थानों में अपहिलवाड
१. क्वचित्प्रवालोत्तमदामयष्टिः क्वचिच्च मुक्तान्तरलोलयष्टिः । ललम्बिरे ताः सह पुष्पयष्ट्या द्वारे पुनः कामलता विचित्राः ।।
-वराङ्ग०, २२.६. २. द्वारोपविष्टा कमलालया श्री: । - वही, २२.६१ ३. उपान्तयोः किन्नरभूतयक्षाः । तीर्थकराणां हलिचकिरणां च भित्यन्तरेष्वालिखितं पुराणम् ।।
-वही, २२.६१ ४. यद्विपस्यन्दनपुङ्गवानां मृगेन्द्रशार्दूल विहङ्गमानाम् । रूपाणि रूप्यैः कनकैश्च ताम्र : कवाटदेशे सुकृतानि रेजुः ॥
-वही, २२.६२ ५. वही, २२.६३ ६. प्रवालकतनपुष्परागैः पद्मप्रभः सस्यकलोहिताक्षः । । महीतलं यस्य मणिप्रवेकस्तारासहस्ररिव खं व्यराजत् ।
-वही, २२.६४ ७. वही, ३२.६५