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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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कार्यों पर लगाना ही उचित समझा जाता था । पद्मा० महाकाव्य में इसी उद्देश्य से छः मन्दिर बनवाने का वर्णन आया है ।'
जैन महाकाव्यों के देश वर्णनों से ज्ञात होता है कि जैन मन्दिरों की स्थिति नगरों में पर्याप्त समृद्ध रही थी । हेमचन्द्र के महावीरचरित में गाँवों में भी जैन मन्दिरों के होने के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु जैन महाकाव्यों के नगर वर्णनों के अवसर पर ही प्राय: जैन मन्दिरों के वर्णन आए हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रामों की अपेक्षा नगरों में अधिक समृद्ध जैन मन्दिरों का निर्माण होता था । 3
जैन मन्दिरों का स्थापत्य
जैन मन्दिर बहुत विशाल एवं गगन चुम्बी होते थे । इनकी निकटस्थ भूमि में बड़े-बड़े बाग-बगीचे उद्यान आदि बनाए जाते थे । वराङ्गचरित में वरिणत इन्द्रकूट नामक विशाल मन्दिर के उद्यानों में प्रियङ्गु, अशोक, करिणकार, पुन्नाग, नाग, अशन, चम्पक, ग्राम्र, आंवला, अनार, मातुलिङ्ग, बेल, क्रमुक, अभया, ताल, तालीद्रुम, तमाल, सुवर्ण, (हरि चन्दन ), वासन्ती, कुब्जक बन्धूक, मल्लिका, मालती, जाती, प्रतिमुक्तक, खजूर, नारिकेल, द्राक्षा, गोल मिर्च, लवङ्ग, कङ्कोल, कदली, ताम्बूल, आदि वृक्षों को लगाने का उल्लेख आया है । ६
मन्दिर में प्रेक्षागृह, अभिषेकशाला, स्वाध्यायशाला, सभागृह, सङ्गीतशाला, पट्टगृह, गर्भशाला आदि विविध प्रकार की शालाएं होतीं थीं । ७ मन्दिर का प्रवेश द्वार बहुत विशाल होता था । मन्दिर के पताका युक्त प्रधान शिखर बहुत ऊंचे बने होते थे । 5 जिन मन्दिर में एक बहुत बड़ा परकोटा भी बना होता था जिसमें सदैव सङ्गीत ध्वनि मुखरित रहती थी तथा गायकों द्वारा स्तुतिवाचन किया जाता था ।
१. पद्मा०, ६.६६-६ε
२. महावीरचरित, १२- ७५
३. वराङ्ग०, १.३५२२.५६, प्रद्यु०, १.२८, वसन्त०, २.२ कीर्ति०, १.६१
४. वराङ्ग०, २२.७६, प्रद्यु०, १.२८
५.
चन्द्र०, १.३१
६. वराङ्ग०, २२.६६ - ७२, चन्द्र०, १.३१
७.
प्रेक्षासभावल्यभिषेकशालाः स्वाध्यायसंगीतकपट्टशालाः । सतोरणाट्टालकवैजयन्त्यश्चलत्पताका रुचिरा विरेजुः ।।
८.
£
वराङ्ग०, २२.७६ प्रद्यु०, १.२८ सुशिल्पिनिर्मापितरम्यशालं मृदङ्गगीतध्वनितुङ्गशालम् ।
— वराङ्ग०, २२.६७
- वराङ्ग०, २२५६