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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं
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४. ब्रह्मचर्याणुव्रत - विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन, तथा पुत्री समझकर व्यवहार करना एवं अपनी पत्नी से ही सन्तुष्ट रहना 'स्वदार संतोषव्रत' अथवा 'ब्रह्मचर्याणुव्रत' कहलाता है ।' स्त्री का अपने पति में ही अनुरक्त रहना भी इसी व्रत के अन्तर्गत आता है ।
५. परिग्रहपरिमाणाणुव्रत -भवन, मन्दिर आदि, खेत-जमींदारी, सोनाचाँदी, अन्न, गाय-भैंस - बैल घोड़ा, सेवक कर्मचारी आदि विविध प्रकार के ऐश्वर्योत्पादक वस्तुनों का एक निश्चित परिमाण में उपभोग करना 'परिग्रहपरिमाणाव्रत' अथवा 'संतोषव्रत' कहलाता है ।
६. दिव्रत - ऊपर-नीचे, पूर्व - पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि दिशाओं, आग्नेय, वायव्य, नैऋत, ईशान आदि विदिशाओं के आवागमन का निश्चय कर उनका प्रतिक्रमण न करना 'दिग्वत' नामक गुणव्रत कहलाता है ।
७. भोगोपभोगपरिमाणव्रत -तेल आदि सुगन्धित पदार्थों तथा वस्त्राभूषण आदि उपभोग्य वस्तुओंों का प्रावश्यकतानुसार प्रयोग करना 'भोगोपभोगपरिमाणव्रत' के नाम से प्रसिद्ध है । ४
८. अनर्थदण्डव्रत — डण्डे रस्सी आदि तथा विष, शस्त्र, अग्नि आदि वस्तुओं को दूसरे व्यक्ति को न देना, बिल्ली आदि द्वारा चूहों के नाश करने के उपायों का प्रयोग न करना, दूसरे व्यक्ति के प्रङ्गछेदन का उपक्रम न करना, किसी की हत्या न करना, दूसरे को बन्धन में डालने का निमित्त न बनना, सामर्थ्य से अधिक पशुओं पर भार न लादना 'अनर्थदण्डत्या गव्रत' कहलाता है । बैल आदि पशुको बधिया करना, उन्हें समय पर भोजन न देना, उन पर अधिक बोझ लादना, वनक्रीड़ा, चित्रकर्म, लेपादि कर्म भी इसी व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ के लिए निषिद्ध हैं ।
६. सामायिकव्रत - पंचनमस्कार मन्त्र के उच्चारण द्वारा प्रातः एवं सन्ध्या को वीतराग प्रभु के आदर्श का चिन्तन करना, प्राणिमात्र को एक समझना, इन्द्रियों एवं मन को नियन्त्रित करना, सदैव अपने तथा दूसरे व्यक्ति के
१. वराङ्ग०, १५.११५, पद्मा०, २.२३१
२. वराङ्ग०, १५.११६, पद्मा०, २.२३२ वराङ्ग०, १५.११७
३.
४. वही, १५- ११८, पद्मा०, २.२४०
५. वराङ्ग०, १५.११६- २०, धर्म०, २१.१४२
६. धर्म०, २१.१४४-४८, पद्मा०, २.२७१-७७