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________________ ३२८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज कल्याण की कामना करना, शत्रुता एवं प्रतिशोध की भावना से दूसरे व्यक्तियों को क्षति पहुंचाने आदि दुर्भावनाओं से दूर रहकर सदैव जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा में लीन रहना 'सामायिक शिक्षाव्रत' कहलाता है।' १०. प्रोषधोपवासव्रत-मास के चार पर्वो (दो अष्टमियों तथा दो चतुर्दशियों) में मन, वचन, काय से पूर्णतः नियन्त्रित होकर अर्थात् 'मनोगुप्ति', 'वचनगुप्ति' तथा 'कायगुप्ति' का सावधानी पूर्वक पालन करते हुए उपवास रखना 'प्रोषधोपवासवत' कहलाता है । ११. अतिथिसंविभागवत-शास्त्रोक्त चार प्रकार के आहार से श्रद्धायुक्त होकर मुनि आदि का आतिथ्य सत्कार करना 'अतिथिसंविभाग' व्रत कहलाता है । १२ सल्लेखनावत-दस प्रकार के बाह्य एवं १४ प्रकार के आन्तरिक परिग्रहों का त्याग कर अहिंसा आदि महाव्रतों का पालन करते हुए शरीर का त्याग करना 'सल्लेखना' व्रत कहलाता है। उपर्युक्त १२ प्रकार के व्रतों में प्रथम पांच 'अणुव्रतों' के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों की परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं किन्तु उत्तरवर्ती तीन 'गुणवतों' एवं चार 'शिक्षाव्रतों' की परिगणना में कुछ मतभेद अवश्य रहा है । कुछ प्राचार्य 'सल्लेखना' व्रत के अस्तित्व को मानने के लिए दूसरे किसी व्रत को नहीं मानते। कभी-कभी एक व्रत को कुछ प्राचार्य 'गुणवतों' में परिगणित करते हैं तो दूसरे इसे 'शिक्षाव्रतों' के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं। बारह व्रतों की संख्या का जहाँ तक प्रश्न है सभी प्राचार्य एकमत हैं किन्तु उनके वर्गीकरण में परस्पर मतभेद हैं। प्राचीन जैनाचार्यों से चली आ रही 'गुणव्रतों' एवं शिक्षाव्रतों' की यह परम्परा जैन संस्कृत महाकाव्यों के समय तक किस प्रकार प्रवाहित हुई थी उसका विवरण तालिका द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है १. वराङ्ग०, १५.१२१-२२, धर्म०, ११.१४६ २. वराङ्ग०, १५.१२३, धर्म०, ११.१५० ३. वराङ्ग०, १५.१२४; धर्म०, ११.१५२ ४. वराङ्ग०, १५.१२५ ५.. विशेष द्रष्टव्य Williams, R., Jain Yoga, London, 1963, pp. 55-62; Bhargava, D.N., Jain Ethics, Ch, V, pp. 110-146, & Sogani, K.C., Ethical Doctrines in Jainism, Sholapur, 1967, Ch. IV, pp. 71-119
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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