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________________ ३२६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाजं नागार धर्म के अन्तर्गत 'महाव्रतों' का महत्त्व होता है ।" सागार धर्म सांसारिक राग-द्वेष के रहते हुए भी साधा जा सकता है किन्तु अनागार-धमं की प्रवृत्ति ही सांसारिक वैराग्य के उपरान्त होती है । 3 सागार धर्म एक प्रकार से अनागार धर्म - साधना का पूर्व - सोपान है । चतुविध संघ में से श्रावक-श्राविका का सागार घमं से तथा साधु-साध्वी का अनागार धर्म से विशेष सम्बन्ध रहता है । प्रस्तुत अध्याय में 'सागार धर्म' को गृहस्थ धर्म के रूप में सर्वप्रथम निरूपित किया गया है । तदनन्तर 'अनागार धर्म' अर्थात् मुनिधर्म का प्रतिपादन हुआ है । द्वादश-व्रताचरण जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि सागार धर्म अर्थात् गृहस्थ धर्म के पालन के लिए अणुव्रतों का प्रमुख स्थान है । कुल मिलाकर गृहस्थों के लिए पाँच 'अणुव्रतों' - 'अहिंसाणुव्रत', सत्याणुव्रत', 'प्रचीर्याणुव्रत', 'ब्रह्मचर्याणुव्रत', 'परिग्रहपरिमाणाणुव्रत'; तीन 'गुणव्रतों' - 'दिव्रत', 'देशव्रत', 'अनर्थदण्डव्रत' तथा चार 'शिक्षा व्रतों' - ' सामायिक', 'प्रोषधोपवास', 'भोगोपभोगपरिमाण', 'अतिथिसंविभाग' प्रादि कुल बारह व्रतों का पालन करना अत्यावश्यक है । जैन संस्कृत महाकाव्यों में इन बारह प्रकार के व्रतों का प्रतिपादन निम्न प्रकार से हुआ है १. श्रहिंसाणुव्रत - देवतानों को प्रसन्न करने, अतिथि सत्कार करने, तथा ओषधि सेवन आदि किसी भी निमित्त से, प्राणियों की हिंसा न करना, 'अहिंसा' कहलाता है । ५ २. सत्याणुव्रत - लोभ, मोह, भय, प्रतिशोध, कपट, ग्रहङ्कार प्रादि किसी भी कारण के विद्यमान रहने पर भी सत्य बोलना, 'सत्याणुव्रत' कहलाता है । ६ ३. प्रचार्याणुव्रत – खेत, मार्ग आदि किसी स्थान पर प्रमाद अथवा भूल से गिरी हुई वस्तु को स्वामी की स्वीकृति के बिना न उठाना 'अचोर्याणुव्रत' अथवा 'प्रस्तेयाणुव्रत' कहलाता है । ७ १. वर्ध०, २२.४८ २. वराङ्ग०, १२.४६ ३. वर्ध०, २२.६० ४. वराङ्ग०, १५.११४ ५. वराङ्ग०, १५.११२, पद्मा०, २.२२१ ६. धर्म ० २१.१३५-४० वरा०, १५.१३३, पद्या०, २.२२२० ७. ८. वही, १५.११४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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