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धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं:
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है ।' समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर गृहस्थों के लिए विहित 'सागार धर्म' अथवा 'लौकिक धर्म का 'अनागार' अथवा 'पारलौकिक' धर्म अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व है । प्रायः गृहस्थ धर्म ही समाज के व्यापक धरातल में अनुस्यूत रहता है जबकि साधु धर्म अत्यधिक दुष्कर एवं क्लिष्ट होने के कारण सामान्य व्यवहार से कुछ भिन्न हो जाता है । मुनि नथमल जी की जैनधर्म के विषय में यह भी धारणा रही है कि धर्म जो प्रात्मगुण है, को परिवर्तनशील समाज व्यवस्था से जकड़ देने पर तो उसका ध्रुवरूप विकृत हो जाता है ।
पुरुषार्थ सिद्धय पाय के लेखक प्राचार्य अमृतचन्द्र के मतानुसार साधु-धर्म ही जैन धर्म का वास्तविक स्वरूप था । फलतः इसी धर्म का प्रचार व प्रसार करना समुचित था तथा गृहस्थ धर्म का उपदेश देना ठीक नहीं समझा जाता था । परवर्ती काल में परिस्थितियाँ बदलती गईं, अब श्रावकाचारों की अधिकाधिक रचना होने लगी थी । परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति आई कि गृहस्थ धर्म अत्यधिक लोकप्रिय होने लगा और मुनि-धर्म कुछ फीका सा पड़ने लगा था । आलोच्य महाकाव्यों के युग में गृहस्थ धर्म उत्कर्ष पर था किन्तु मुनि-धर्म की स्थिति भी अच्छी रही थी ।
सागार धर्म एवं अनागार धर्म में श्रन्तर
सागार धर्म एवं अनागार धर्म स्वरूप एवं उद्देश्य की दृष्टि से भिन्न भिन्न रहे हैं । सागार धर्म लौकिक विधियों पर आधारित होने के कारण गृहस्थों ( श्रावकों) के लिए है किन्तु अनागार धर्म पारलौकिक दृष्टि से साधुयों के लिए होता है । सागार धर्म का मुख्य फल स्वर्ग प्राप्ति एवं सुख- ऐश्वर्य भोग है तो नागार धर्म का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है । ६ सागार धर्म के अन्तर्गत जिनपूजा, मन्दिर स्थापना प्रादि कर्मकाण्डों के प्रतिरिक्त उपदेश - श्रवण, दान एवं 'अणुव्रतों' के पालन करने आदि पर विशेष बल दिया जाता है तो दूसरी श्रोर
१. आद्य गृहस्थ : परिपालनीयः परं परः संयमिभिविविक्तः ।
२. मुनि नथमल जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृ० ४४७ ३. कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य, दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृ० १६४-६५
४. वही, पृ० १६५
५.
६. वही, १२.४७
७.
वराङ्ग०, २२.२८
__वर्ध०, १२.४८
वराङ्ग०, २२.२ε-७७, वर्ध०, २२.४८