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________________ ३२४ जैन संस्कृत महाकाव्यों भारतीय समाज है जो दर्शन रूपी जल 'सींचा गया है तथा स्वर्गफलदायी एवं इन्द्रियसुखकर है । " इन सभी परिभाषाओं में 'धर्म' का स्वरूप लोकोत्तर दृष्टिगोचर होता है । श्राचारपरक दृष्टि से भी 'धर्म' का स्वरूप उद्घाटित किया गया है । शान्तिनाथ - चरित में धर्म के चार प्रकार कहे गए हैं - ( १ ) दान (२) शील ( ३ ) तप तथा (४) भावना । चतुर्विध धर्म की यह व्याख्या जैन धर्म में विशेष रूप से लोकप्रिय हुई है । प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि द्वारा राजा कुमारपाल को धर्म का जो स्वरूप समझाया गया था उसमें भी धर्म के ये ही चार भेद कहे गए हैं । वराङ्गचरितकार 'धर्म' को दया के बिना प्रपूर्ण मानते हैं ।" यशस्तिलक चम्पू में धर्म को लौकिक एवं पारमार्थिक इन दो भागों में बांटा गया है। इस प्रकार जैन धर्म का क्षेत्र लौकिक कर्मकाण्ड तथा पारलौकिक तप साघनानों तक व्याप्त है जिसमें गृहस्थों तथा मुनियों की धार्मिक दिनचर्या आदि भी समाहित है । संक्षेप में चतुर्विध धर्मभेदों में दान के अन्तर्गत करुणा, दान, दया आदि त्यागपरक मानव मूल्य आते हैं । शील के अन्तर्गत पंचाणुव्रत, विचारसमन्नय, संयम आदि नैतिक एवं आचार सम्बन्धी जीवन मूल्य निहित हैं । तप द्वारा आत्म-विकास एवं आत्मशुद्धि के लिए मार्ग प्रशस्त होता है । भावना के द्वारा राग-द्वेष, आदि दुर्भावनाएं समाप्त होतीं हैं । धर्म के इसी स्वरूप एवं परिधि को लक्ष्य कर जैन धर्म पर प्रकाश डाला गया है । द्विविध धर्म - 'सागार' एवं 'अनागार' जैन धर्म को श्राचार, व्रत आदि दृष्टियों से दो भागों में विभक्त किया सकता है । (१) सागार धर्म तथा ( २ ) अनागार धर्म । सागार धर्म का विधान गृहस्थों के लिए है तो अनागार धर्म की व्यवस्था मुनियों के लिए हुई — प्रद्यु०, ६.६२ १. स्वर्गसौख्यफलं स्वादु सर्वेन्द्रियसुखावहम् । धर्मद्रुमः फलत्येव सिक्तो दर्शनवारिणा । २. दानं सुपात्रविषये प्रतिपादनीयं शीलं विशदं परिपालनीयम् । तप्यं तपश्च शुचि भावनया समेतं, धर्म चतुर्विधमुदाहृतवाञ्जिनेशः । - शान्ति०, ३.३६ तथा पद्मा०, २.१७६ ३. पद्मा०, २.१७७ ४. Sheth, C.B., Jainism in Gujarat, Bombay, 1953, p. 72. ५. वराङ्ग०, १५.१०७ तथा धर्मक्रियाया हि दयैव मूलं । — वही, २५.२६ ६. वर्ष ०, १२.४७, धर्म०, २१.१२४ ७. सागारिकाणुव्रतभेदभिन्ननागारिकः ख्यातमहाव्रतश्च । —वर्ध०, १२.४८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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