SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं ३१३ भाषा के जैन कवि रन्न को राज्याश्रय भी दिया। इस प्रकार भारत में जैन धर्म विशेष प्रगति पर था तथा आलोच्य युग में गुजरात, राजस्थान के कुछ भाग तथा दक्षिण भारत के अनेक क्षेत्रों में जैन धर्म का विशेष प्रचार व प्रसार हुमा था। इस घमं प्रचार में पल्लव, गङ्ग, राष्ट्रकूट, कदम्ब, होयसल चालुक्य प्रादि राजवंशों का विशेष योगदान रहा है । 3 २. जैन गृहस्थ धर्म एवं व्रताचरण जनानुमोदित 'धर्म' का स्वरूप जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'धर्म' शब्द को व्यापक रूप में ग्रहण किया गया है । प्रद्युम्नचरित के अनुसार 'धर्म' मनुष्य को दुर्गति से बचाता है तथा जगत् में प्राणियों को स्थिति का कारण भी है । अनेक महाकाव्यों में धर्म' को ही मात्र सच्चा मित्र माना गया है जो मनुष्य जीवन को सोद्देश्य तथा सफल बना पाता है । ४ दूसरे शब्दों में माता, पिता, भाई, बन्धु आादि सम्बन्ध 'धर्म' के सामने असहाय तथा फीके पड़ जाते हैं । विभिन्न उपमानों का श्राश्रय लेकर कवियों ने सांसारिक व्यवहारों से तुलना करते हुए इसे कभी मछलियों की गति के लिए जल की भांति, दीर्घ तथा दुर्गम यात्रा के लिए पाथेय की भांति स्वीकार किया है, तो कभी दुर्भेद्य कवच, समुद्रस्थ नौका तथा प्रचूक प्रौषधि मानते हुए धर्म के लोकोत्तर स्वरूप को स्पष्ट करने की चेष्टा की है।७ जैन कवियों ने धर्म को ऐसे वृक्ष के समान भी माना १. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में, पृ० ५१७ २. द्रष्टथ्य - Ayyangar M. S.R., & Rao, B.S., Studies in South Indian Jainism, p. 111; Rice, B. L. Mysore and Coorg From the Inscriptions, London, 1909, p. 203; Moraes, G.M., The Kadamba Kula, p. 35. ३. पततो दुर्गतौ यस्मात्प्राणिनो धारयत्यसौ । तेनान्वर्थो जगत्येष धर्मः सद्भिर्निगद्यते ॥ —प्रद्यु०, ६.५७ ४. वराङ्ग०, १५.७८, प्रद्यु०, ६.६६ ५. कस्य माता पिता कस्य कस्य भार्या सुतोऽपि जातो जातो हि जीवानां भविष्यन्ति परे ६. धर्म०, २१.८३, प्रद्यु०, ६.६५ ७. प्रद्यु०, ६.६४ वा । परे ॥ -- वराङ्ग०, १५.७८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy