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________________ ३२२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज राजनैतिक लोकप्रियता आलोच्य युग में जैन धर्म की ६३४-३५ ई० के ऐहोल शिलालेख से ज्ञात होता है कि चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय के समय में दक्षिण भारत में जैन धर्म उत्कर्ष की स्थिति पर था । " पल्लवराज सिंह वर्मन (४३६ ई०) के राज्यारोहण के काल से लेकर कल्याणी के चालुक्य तैलप द्वितीय द्वारा राष्ट्रकूटों के पतन ( १७३ ई०) तक अनेक अन्तरालों में जैन धर्मं राजधर्म के रूप में भी प्रतिष्ठित हुआ था । पल्लवकाल में कांची जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । श्राचार्यं समन्तभद्र, भट्ट प्रकलङ्क आदि प्रमुख जैन नैयायिक कांची से ही सम्वद्ध थे । कांची में उपलब्ध विष्णु-कांची तथा शिव - कांची के अतिरिक्त जिन-कांची (निरुपरुत्ति - कुन्नुम् ) के अवशेषों से ज्ञात होता है कि शैव तथा वैष्णव सम्प्रदायों के उत्कर्ष से पहले कांची जैन धर्म का भी प्रमुख केन्द्र रहा होगा । नवीं शताब्दी में पल्लव वंश के पतन के बाद चोल राजाओं ने अनेक जैन मन्दिरों तथा अन्य धार्मिक केन्द्रों को नष्ट भी किया था । जैन धर्म के प्रचार व प्रसार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र उज्जयिनी, मथुरा, तथा वलभी श्रादि भी थे । ४ सातवीं-आठवीं शताब्दी में कर्नाटक में जैन धर्म राजधर्मं के रूप में प्रतिष्ठित था । वर्धमानचरितकार प्रसग भी कर्नाटक में रहते हुए ही साहित्य साधना कर पाए थे। डा० एन० एन० उपाध्ये महोदय के अनुसार वराङ्गचरितकार जटासिंह नन्दि ( सातवीं प्राठवीं शताब्दी ई०) के समय में कर्नाटक में जैन धर्म की स्थिति बहुत अच्छी थी । उस समय कर्नाटक में ब्राह्मण धर्म की स्थिति अच्छी नहीं थी तथा जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था । १२वीं १३वीं शताब्दी में प्राचार्य हेमचन्द्र तथा राजा कुमारपाल के समय में गुजरात जैन धर्म का विशेष केन्द्र था । चालुक्य काल के ही राजा वीरधवल के समय में महामात्य वस्तुपाल तथा तेजपाल द्वारा की गई जैन धर्म की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता है । संक्षेप में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय के समय से लेकर जैन धर्म उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहा था । अनेक दानपत्रों से ज्ञात होता है कि चालुक्य नरेश विनयादित्य, विजयादित्य, तथा विक्रमादित्य ने जैन प्राचार्यों को अनेक भूमिदान भी दिए थे। पश्चिमी चालुक्य वंश के संस्थापक तैलप ने कन्नड १. Epigraphia Indica, Vol. 8, p. 7. २. वराङ्गचरित, खुशाल चन्द गोरावाला, भूमिका, पृष्ठ ३२ ३. वही, पृ० ३३ ४. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में, प० ५१५ ५. वराङ्गचरित ए० एन० उपाध्ये, भूमिका, पृ० ३६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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