________________
३१८
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। सोमदेव ने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देते हुए लौकिक एवं पारलौकिक दो प्रकार के गृहस्थ धर्म को स्वीकार कर लौकिक धर्म के अन्तर्गत वेदों को प्रमाण माना है।' सम्भवतः सोमदेव धार्मिक कट्टरता के विरोधी थे तथा तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में जैन धर्म को एक उदार धर्म के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे, किन्तु जटासिंह ब्राह्मण सस्कृति के घोर विरोधी होने के कारण उसके साथ सिद्धान्तः कोई समझौता नहीं कर पाए। (घ) पुरोहितवाद का विरोध
वैदिक युग में ही ब्राह्मणों एवं क्षत्रिय राजकुमारों अथवा राजानों के मध्य वर्ग-संघर्ष की स्थिति आ गई थी। इसी समय जैन एवं बौद्ध विचारधाराओं के बल पकड़ने और ब्रह्मविद्या के प्रचार से ब्राह्मणों के प्रभुत्व को भारी धक्का पहुंचा था। गुप्तकाल के स्वर्णयुग में हिन्दू धर्म का पर्याप्त उत्कर्ष हुआ तथा पुनः भारतवर्ष में पुरोहितवाद को विशेष शक्ति मिली। मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में ब्राह्मण वर्ग की पवित्रता एवं उत्कर्षता प्रतिपादित करने की कोई कसर शेष न रही थी। पुरोहितवाद के इस महान् अभ्युदय की स्थिति का ज्ञान जैन संस्कृत महाकाव्यों से भी होता है । किन्तु जटासिंह नन्दि जैसे ब्राह्मण विरोधी व्यक्तित्वों ने पुरोहितवाद की त्रुटियों को सामने लाकर उनकी पर्याप्त आलोचना की है। उनका कहना है कि ब्राह्मण अत्यन्त लोभी होते हैं तथा अपने यजमानों के पूण्य संचय के नाम पर फल, सुगन्ध, वस्त्र, भोजन आदि पदार्थों को स्वयं ले लेते हैं ।४ (ङ) देवोपासना का विरोध
वराङ्गचरित के अनुसार लमभग सातवीं-पाठवीं शताब्दियों में ब्राह्मण-धर्म के अन्तर्गत पुराणसम्मत देवोपासना का बहुत अधिक प्रचलन हो गया था। इन
१. द्वौ हि धौं गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । तथा श्रुतिर्वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं
स्मतिर्मता ।।
-यशस्तिलक, पृ० २७३, २७८ २. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण,
पृ० ८६-८७ ३. ये निग्रहानुहयोरशक्ता द्विजा वराका: परपोष्यजीवाः । मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथ भवन्त्युत्तमजातयस्ते ॥
-वराङ्ग०, २५.३३ ४. पत्राणि पुष्पाणि फलानि गन्धान्वस्त्राणि नानाविधभोजनानि । संगृह्य सम्यग्बहुभिः समेताः स्वयं द्विजा राजगृहं प्रयान्ति ॥
-वही, २५.२६