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________________ मावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा २८५ चन्द्रिका कोश के अनुसार निगम के सुर, वेदादि अर्थ होते थे किन्तु निगम ग्राम के व्यापारियों को भी कहते थे ।' १७वीं शताब्दी के कोष कल्पतरु द्वारा प्रतिपादित निगम का प्रचलन व्यापार, वणिक्पथ, प्रादि से अधिक सम्बद्ध हो गया था। क्योंकि निगम में अधिकांश रूप से वणिक् लोग ही निवास करने लगे थे प्रतः निगम का निवासी-गम' वणिक के रूप में रूढ हो गया। अभिधान० ने इसी प्राशय से 'नैगम' के पर्यायवाची शब्दों का परिगणन किया है । इससे पूर्व १२वीं शताब्दी के समय तक 'नमम' शब्द पूर्णतः व्यापारी के अर्थ में बढ़ रहा था।' ७. वास्तुशास्त्र के प्रन्थ-वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में भी नगर-ग्राम प्रादि के स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला गया है । नगर-ग्राम प्रादि की परिभाषामों के सन्दर्भ में 'निगम' भी इसी प्रकार के प्रावास भंद का का एक प्रकार था। 'विश्वकर्मप्रकाश' संभवतः मत्स्यपुराण से प्राचीन था अतः सातवीं शती ई० के लगभग इसका समय निर्धारित किया जा सकता है। वास्तुशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थानुसार निगम, स्कन्धावार, द्रोणक, कुन्ज, पट्टण तथा शिविर नामक छः प्रकार के नगर 'नृपभोग्य' नगर कहलाते थे। संभवत: ये नगर राज्य की शासन व्यवस्था, सुरक्षा, व्यापार प्रादि दृष्टियों से भी उपादेय रहे थे। 'निगम' नामक नगर धनधान्य से समृद्ध होते थे तथा राज्य के महत्वपूर्ण उच्चाधिकारी गण इनमें निवास करते थे। इन नगरों में बाजार, न्यायशालाएं तथा ऊंचे-ऊंचे महल भी बने होते थे। क्योंकि शासन व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों तथा केन्द्रों से इन नगरों का सम्बन्ध होता था। ये नगर प्रायः वनमध्य तथा पर्वतादि से प्रारक्षित होते थे। सुरक्षा की दृष्टि से इन नगरों के चारों पोर रक्षक नियुक्त किये जाते थे तथा इन नगरों के चारों मोर बड़े-बड़े मार्ग भी बने होते थे। नानाविध जातियों के लोग इनमें निवास करते १. निगमो वणिग्ग्रामः । निगमः सुरे वेदे ॥ -पदचन्द्रिकाकोश २. अट्टो स्त्री निगमो द्वंद्वे विपणिः स्याद् वणिक्पथः । क्रयस्थली पण्यवीथी वासनी विपणियोः ।। -कोषकल्पतरु, पुरवर्ग २४, पृ० १२१ ३. सत्यानृतं तु वाणिज्यं वरिणज्या वाणिजो वणिक् । क्रयविक्रयिकः पण्याजीवा ऽऽपणिकनगमाः ।। -अभिधान०, ८६७ ४. Benerji, S.C., Aspects of Ancient Indian Life, Calcutta, 1972, p. 55 निगमादिनगर्यस्तु नपभोग्या उदीरिताः । -विश्वकर्मवास्तुशास्त्र, ed. Shastri, K.V., Tanjore, 1958; 8.31
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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