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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
में वास्तुशास्त्र द्वारा अनुमोदित शास्त्रीय (technical) शब्दावली प्रयुक्त होने लगी थी। नगर के दस भेदों में निगम' भी एक महत्त्वपूर्ण मेद होता था। वाचस्पति ने अभिधान चिन्तामणि के 'निगम' को स्पष्ट करते हुए इसके पारिभाषिक स्वरूप को स्पष्ट किया है। ८०० ग्रामों के आधे भाग को 'द्रोणमुख' अथवा 'कीट', 'कीट' के आधे को 'कवुटिक', 'कवुटिक' के प्राधे को 'कार्वट', 'कार्वट' के आधे को ‘पत्तन' अथवा 'पुटभेदन' संज्ञा दी गई है। 'निगम' 'पत्तन' का प्राधा भाग होता था तथा 'निगम' के प्राधे भाग को 'निवेशन' कहा गया है।' इस प्रकार लगभग २५ गांवों के समूह की संज्ञा 'निगम' ठहरती है। अभिधान चिन्तामणि पर विजयकस्तूर सूरि कृत 'चन्द्रोदया' नामक गुजराती टीका के अनुसार 'पत्तन' का आधा तथा २५ ग्रामों में श्रेष्ठ नगर निगम' कहलाता था। कल्पद्रुकोष में भी इसी दिशा में 'निगम' का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। कल्पद्रुम के अनुसार 'खेट' का आधा ‘पत्तन' होता था तथा 'पत्तन' का आधा भाग 'निगम' कहलाता था और 'निगम' के प्राधे भाग को 'निवेशन' संज्ञा दी गई है। संस्कृत कोषकारों ने निगम' शब्द के पर्यायवाची शब्द भी दिए हैं । एक, 'निगम' के साधारण पर्यायवाची शब्द जिनके पुर, वेद, निश्चय वाणिज्य, वणिक् तथा नगर आदि अर्थ संभव थे। दूसरा, वास्तुशास्त्रीय दृष्टिकोण से 'निगम' नगरभेद सम्बन्धी अर्थों से सम्बद्ध था। नगरभेद के पर्यायवाची शब्दों को प्राय: 'पुरवर्ग' में परिगणित किया गया है । 'निगम' का अर्थ मूल रूप से मार्ग होता था बाद में यह अर्थ व्यापार-मार्ग के रूप में, तदनन्तर व्यापार अर्थ में, तथा व्यापारियों के ग्रामों के अर्थ में भी होने लगा था। हेमचन्द्र के अभिधानचिन्तामणि में 'निगम' का मार्ग अर्थ भी दिया गया है। इसी प्रकार १५वीं शती की पद
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१. ग्रामशताष्टके तदर्घ तु द्रोणमुखं तच्च कवंटमस्त्रियाम् ।
कवटार्चे कवुटिकं स्यात् तदर्थे तु कार्वटम् ।। तदर्थे पत्तनं तच्च, पुटभेदनम् ॥ निगमस्तु पत्तनार्थे, तदर्धे तु निवेशनम् ।
__ -(वाचस्पति), अभिधान०, ६७२ २. अभिधान० ६७२ पर विजयकस्तूर सूरि कृत 'चन्द्रोदया' गुर्जरभाषा टीका, __ अहमदाबाद, वि० सं० २०२३, प० २२१ । ३. तदद्धर्ममस्त्रियां खेटस्तस्याद्ध पत्तनोऽस्त्रियाम् ।
तदर्द्ध निगमः पुंसि तदर्द्ध तु निवेशनम् ॥ -कल्पद्रुकोश ४. पदव्येकपदी पद्या पद्धतिर्वर्त्म वर्तनी । अयनं सरणिर्गोिऽध्वा पन्था निगमः सृतिः ॥
-अभिधान०, ६८३, पृ० २२४
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