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________________ २८२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज 'रिणगम' (निगम) की व्याख्या करते हुए आचाराङ्ग-चूर्णी (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईस्वी) का कथन है कि जहाँ 'नगम' अर्थात् व्यापारी लोग निवास करें उसे निगम कहते है-णिगमो जत्थ णेगम वग्गो परिवसति ।'' इसी प्रकार शीलालाचार्यकृत प्राचाराङ्ग वृत्ति के अनुसार 'निगम' की 'प्रभूततरवणिग्वर्गावासः'२ परिभाषा की गई है । यही परिभाषा 'सूत्रकृताङ्गटीका' को भी अभिमत है : तुलनीय-'बहुवणिग्निवासः। 3 उत्तराध्ययन की टीका, जो संभवतः इन टीकाओं से प्राचीन है 'भूतवरिणग्निवासः'४ कहकर निगम' को पारिभाषित करती है। लगभग चतुर्थ शताब्दी ई० से वीं शताब्दी ई. तक के उपर्युक्त चूर्णी ग्रन्थों एवं वृत्ति ग्रन्थों में 'निगम' को व्यापारिक ग्राम के रूप मे प्रतिपादित किया गया है। मध्यकालीन जैन संस्कृत महाकाव्य भी व्यापारिक ग्रामों के रूप में 'निगम' का वर्णन करते हैं ।५... ६. कोष-ग्रन्थ-कोष-ग्रन्थों में 'निगम' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द परिगणित किए गए हैं। इन कोष ग्रन्थों पर की जाने वाली टीकात्रों के द्वारा 'निगम' शब्द के स्वरूप-निर्धारण में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। सर्वप्रथम अमर कोष लगभग छठी-शताब्दी ईस्वी में लिखा जा चुका था। अमरकोष के समय में 'निगम' के वणिक्ाथ (बाजार) पुर, नागर, वणिक तथा वेद पर्थ प्रचलित थे। अमरकोष के पुरवर्ग में पठित 'निगम' नगरभेद की संज्ञा के रूप में उल्लिखित है। पांचवीं-छठी शताब्दी ई. तक नगर भेदों में पुर, नगर, पत्तन, पुटभेदन, स्थानीय, निगम, मूलनगर (राजधानी) तथा शाखा नगरों की प्रआवासीय संस्थितियां वर्तमान थीं ।' 'निगम' के सन्दर्भ में प्रधानत: अमरकोष १. प्राचाराङ्गचूर्णी, रतलाम, १९४१, पृ० १८२ २. प्राचाराङ्गवृत्ति, बम्बई, १९३५, पृ० २५८ ३. Stein, Jinist Studies, पृ० १४ पर उद्धृत ४. वही, पृ० १४ ५. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० २५३-५६ ६. Kalpadrukosa of Kesava, ed. Ramavatara sarma, Vol. I, Baroda, 1928, Intro , p. xvii. ७. वणिक्पथः पुरं वेदो निगमो नागरो वणिक् । -नामलिङ्गानुशासन, ३.१४०, सम्पा०, कृष्णजी गोविन्द ___ोका, पूना, १६१३ ८. पुः स्त्री पुरीनगयों वा पत्तनं पुट भेदनम् । स्थानीयं निगमोऽन्यत्तु यन्मूलनगरात्पुरम् ।। -नामलिङ्गा०, द्वितीय काण्ड, पुरवर्ग १, पृ० ४८ ६. मूलनगरं राजधानी ततोऽन्यत्ससुदायस्थानं (शाखानगरं) शाखेत्युपाङ्गोपलक्षणम् । -नामलिङ्गा०, पुरवर्ग-१, पर क्षीरस्वामीकृत टीका, सम्पा०, कृष्णजी गोविन्द प्रोका, पृ० ४८ ।
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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