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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
हैं । किन्तु इसके विपरीत रामायण के 'पौरजानपद' तथा 'नगम' की के० पी० जायसवाल दूसरे ढंग से व्याख्या करते हैं । जायसवाल के अनुसार 'पौरजानपद' एक संवैधानिक एवं नगर के प्रतिनिधियों की सङ्गठित समिति' है तो 'निगम' नगर के व्यापारियों का एक 'सामूहिक संगठन' है ।' जायसवाल के इस तर्क का मुख्य प्राधार 'पौरजानपद' तथा 'नेगम' का एक वचन में प्रयुक्त होना है ।२ एन० एन० ला. तथा ए० एस० अल्टेकर ने जायसवाल के मत का खण्डन किया है। अतः इस सम्बन्ध में और अधिक कहना प्रासङ्गिक न होगा। संक्षिप्त में यह उल्लेखनीय है कि 'पौरजानपदश्च' पाठ, जो कि जायसवाल को अभिमत है तथा जिस उद्धरण पर सम्पूर्ण 'पौरजानपद-सिद्धान्त' भी अवलम्बित है, वह पाठ विद्वानों को मान्य नहीं। इस तथ्य को स्वयं जायसवाल महोदय ने भी स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त रामायण से स्पष्ट रूप से 'नगम' की 'व्यापारिक समिति' के रूप में पुष्टि न होने के कारण 'पौरजानपद-सिद्धान्त' तथा 'नेगम' की तथाकथित व्याख्या भी निराधार हो जाती है । वास्तव में जायसवाल महोदय वैदिककाल से चली आ रही 'समिति' की जिस विशेषता को रामायणकाल में भी येन केन प्रकारेण सिद्ध करना चाहते हैं, उसके लिए उन्होंने अत्यधिक परवर्ती विवादरत्न, वीरमित्रोदय आदि ग्रन्थों से अस्पष्ट उद्धरणों को लेकर अपने मत का समर्थन किया है । इस सम्बन्ध में सत्यकेतु विद्यालङ्कार ने जायसवाल महोदय की 'निगम-धारणा' का खण्डन करते हुए कहा है-"जायसवाल जी ने जिस ढंग से 'पौरजानपद' के स्वरूप को प्रतिपादित किया है, उसके विरोध में भी युक्तियाँ दी जा सकती हैं। संस्कृत में सामूहिक अर्थ में एक वचन का प्रयोग असामान्य बात नहीं है। रुद्रदामन् और अशोक के शिलालेखों में 'पौरजानपद' का प्रयोग जिस रूप में हुअा है, उससे स्पष्टतया यह सूचित नहीं होता कि इन नामों की संस्थाएं या सभाएं वहाँ अभिप्रेत हैं। 'पुर-निवासी' और
9. Jayaswal, Hindu Polity, pp. 252-53. २. वही, पृ० २४० ३. (i) Law, N.N., “The Janapada and Paura" (Article), 'Histori
cal Quarterly', Vol. 2, Nos. 2-3, 1926. (ii) Altekar, A.S., State and Govt. in Ancient India, Banaras,
1972, pp. 146-54. 8. Jayaswal, Hindu Polity, p. 240. ५. वही, पृ० १८-२२ ६. Altekar, State and Govt., pp. 153-54