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________________ आवास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषां २६३ होते थे ।' इस नगर में मुख्यतः आखेटकों, मृत्यों तथा कृषकों का निवास माना गया है। ११. सम्बाध ___सम्बाध' अथवा 'सम्वाह' अनाज रखने के भण्डार के रूप में पारिभाषित हुना है । कल्पसूत्र-टीका की एक परिभाषा के अनुसार समभूमि में कृषि करने के उपरान्त कटे हुए अनाज की रक्षा करने के लिए उसे 'सम्वाह' नामक स्थान विशेष में रखा जाता था। इसे 'दुर्गभूमि' अर्थात् पर्वत के ऊंचे भाग के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है।४ 'सम्वाह' के इसी वैशिष्ट्य को प्रोपपात्तिकसूत्र-टीका ने 'पर्वतनितम्बादि दुर्गे स्थापनी'५ द्वारा स्पष्ट किया है। किन्तु उत्तराध्ययन की टीका ने 'सम्बाध' में चारों वर्गों के लोगों का निवास माना है।६ औप० तथा कल्प० की टोकानों की प्रथम परिभाषा ‘सम्वाह' तथा उत्तराध्ययन टीका की द्वितीय परिभाषा 'सम्बाध' से सम्बद्ध है । ऐसा प्रतीत होता है कि 'सम्बाध' ही निवासार्थक नगर भेद की इकाई रही होगी तथा चारों वर्गों के लोग इसमें निवास करते होंगे किन्तु 'सम्वाह' अनाज आदि के केवल मात्र भण्डार ही थे अथवा इसमें लोगों का निवास भी होता था, इसकी सूचना नहीं मिलती। वैसे भी अन्य निवासार्थक इकाइयों की तुलना में 'सम्बाध' का उल्लेख बहुत कम तथा केवल पद्मा०, त्रिषष्टि० आदि में ही हुआ है । प्रादिपुराणकार सम्वाह' का ही उल्लेख करते है ‘सम्बाध' का नहीं। प्रमेयरत्नमंजूषा के अनुसार 'पर्वत शिखरस्थ निवास स्थान' अथवा 'यात्रा के लिए आए हुए बहुत लोगों के प्रावास स्थान' को 'सम्बाध' कहा जाता था। निष्कर्षतः 'सम्बाध' को ही निवासार्थक इकाई के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। १. वास्तुभूमिः खर्वटस्य नदीतीरगता मता। -विश्व०, ८.२२ २. वागुराजीविभिश्चान्य तकैश्च कृषीवलैः । मदिरागेहसंयुक्ता विपण्यादिभिरावृता ।। – विश्व०, ८.२५ ३. चतुर्दशसहस्राणां सम्बाधानामधीशिता । - पद्मा०, १६.१६६ तथा त्रिषष्टि ०, २.४.२६२ ४. समभूमो कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूमिषु धान्यानि कृषीवला: संवहन्ति रक्षार्थम् । —(कल्प० टीका), Jinist Studies, पृ० १७ पर उद्धृत । ५. औप० सूत्र-टीका, वही, पृ० १८ ६. सम्बाधः प्रभूतचातुर्वर्ण्य निवासः (उत्तरा० टीका०), वही, पृ० १८ ७. पद्मा०, १६.१६९; त्रिषष्टि०, २.४.२६२ ८. संवाहस्तु शिरोव्यूढधान्यसञ्चय इष्यते । -आदि०, १६.१७३ ६. शैलशृङ्गस्थायिनो निवासा यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशा वा सम्बाधाः । -(प्रमेयरत्नमंजूषा), पद्मा०, १६.१६६ पर उद्धृत
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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