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________________ २६२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज है तथा 'जलवर्ती' एवं 'स्थलवर्ती' इसके दो भेद माने हैं।' प्रादिपुराण की मान्यता है कि जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नाव द्वारा उतरते हों, उसे 'पत्तन' कहते हैं । २ एक अन्य परिभाषा के अनुसार नौकाओं द्वारा गम्य-'पट्टन' तथा नौकाओं के अतिरिक्त घोड़े, गाड़ियों द्वारा भी गम्य स्थान-'पत्तन' कहलाता है। १०. कर्वट प्राकारों से वेष्टित अथवा चारों ओर से पर्वतों से घिरे हुए नगर अथवा ग्राम को 'कर्वट' कहते हैं ।५ ‘कवंट' के लिए 'खर्वट' तथा 'खर्वड' का भी प्रयोग हुआ है । ६ वाचस्पति कोश में 'कट', 'कवुटिक' तथा 'कार्वट' तीन भेद पाए हैं, जो क्रमश: एक दूसरे के प्राधे होते थे।" आदिपुराणकार ने एक 'खर्वट' में दो सौ ग्राम माने हैं । विश्वकर्मावास्तुशास्त्र के अनुसार 'खर्वट' नदी के तौरस्थ नगर १. यत्र सर्व दिग्भ्यो जनाः पतन्त्यागच्छन्तीति पत्तनमथवा पत्तनं रत्नखनिरिति लक्षणं तदपि द्विविधं जलमध्यवत्ति स्थलमध्यवत्ति च । -(उत्तरा० टीका), २. पत्तनं तत्समुद्रान्ते यन्नौभिरवतीर्यते। -आदि पु०, १६.१७२, पारावारतटे वापि भूधरोपत्यकातटे स्वादुतोयस्थले वाऽपि पत्तनम् कारयेद् बुधः । -विश्व०, ८.६० ३. पत्तनं शकट गम्यं घोटिकैनौंभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं पट्टनं तत् प्रचक्षते ॥ -व्यवहारसूत्र, भाग ३, पृ० १२७ ४. द्रोणीमुखानखर्वडपत्तनानि । -वराङ्ग०, ३१.५५, कर्बटानां मडम्बानामिवा डम्बरभावश्रियाम् । —पद्मा०, १६.१६७, खेटकर्वटमटम्बचयेन । –प्रद्यु०, ५.११ तथा त्रिषष्टि०, २.४.२६२ ५. क्षुल्लकप्राकारवेष्टितानि अभितः पर्वतावृत्तानि वा कर्बटानि।-पद्मा०, १६.१६७ पर उद्धृत प्रमेय रत्नमंजूषा, पृ० ३६२ ६. आदि०, १६.१७१ तथा वराङ्ग०, ३१.५५ ७. कवटार्धे कवुटिकं स्यात् तदर्धे तु कार्वटम् । -(वाचस्पति), अभि० ६७२, ___ Jinist Studies, पृ० १४ पर उद्धृत । ८. शतान्यष्टौ च चत्वारि द्वे च स्युमिसंरयया सर्वयोः। --प्रादि०, १६.१७५
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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